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रसार्णवसुधाकरः
(नेपथ्य से राम के प्रति यह कथन)- जिन्होंने इक्कीस बार सकल क्षत्रिय का संहार कर दिया, क्रौञ्चपर्वत का भेदन करके पृथ्वी पर सर्वप्रथम हंसों को आने का अवसर दिया, गणेश तथा भृङ्गिगण रूपसैन्य से युक्त स्कन्द को जीता, वे ही परशुराम अपने गुरु के धनुर्भङ्ग होने के कारण उत्पन्न रोषवश तुम्हें पूछते हुए आ रहे हैं।।13।।
यहाँ परशुराम की तेजस्विता का कथन हुआ है। अथ कलावत्त्वम्__ कलावत्त्वं निगदितं सर्वविद्यासु कौशलम् ।।७०।। यथा
गोष्ठीसु विद्वज्जनसञ्चितस्य कलाकलापस्य स तारतम्यम् । विवेकसीमा विगतावलेपो
विवेद हेम्नो निकषाश्मनीव ।।14।। कलासम्पन्नता- सभी विद्याओं में कुशलता कलासम्पन्नता कहलाता है।।७०उ.॥
जैसे- विवेक रूपी सीमा वाले तथा अहंकार से रहित उसने सभाओं में विद्वानों द्वारा सञ्जात कलाकलाप के क्रम की सुवर्ण की पत्थर वाली कसौटी के समान समझा।।14।।
अथ प्रजारज्जकत्वम्
रजकत्वं तु सकलचित्तालादनकारिता। यथा (रघुवंशे ८.८)
अहमेव मतो महीपतेरिति सर्वः प्रकृतिष्वचिन्तयत् ।
उदधेरिव निम्नगाशतेष्वभवन्नास्य विमानना क्वचित् ।।15।। प्रजारञ्जकता-सभी प्रजाजनों के चित्त को प्रसन्न रखना प्रजारञ्जकता कहलाता है।।७१पृ.॥ जैसे (रघुवंश ८.८ में)
प्रजाओं में सब लोगों ने यही समझा कि मैं ही महाराज अज का सबसे अधिक अभिमत व्यक्ति हूँ। सैकड़ों सरिताओं में सागर के समान इसके द्वारा कहीं भी किसी का अपमान नहीं हुआ। चूँकि कभी कोई अपमानित नहीं हुआ अतः सभी यही समझते थे कि मैं ही राजा का प्रियपात्र हूँ।।15।।
उक्तैर्गुणैश्च सकलैर्युक्तः स्यादुत्तमो नेता ।।७१।। मध्यः कतिपयहीनो बहुगुणहीनोऽधमो नाम । नेता चतुर्विधोऽसौ धीरोदात्तश्च धीरललितश्च ।।७२।। धीरप्रशान्तनामा ततश्च धीरोद्धतः ख्यातः ।