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प्रथमो विलासः
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देवेनाप्रतिपत्तिमूढमनसा द्वित्राः स्थितं नाडिकाः ।।34।।
(ई) दक्षिण (नायक)- अनेक नायिकाओं के होने पर भी (सभी के साथ) समान (प्रीति रखने वाला) दक्षिण नायक कहलाता है।।८३पू.।।
जैसे (दशरूपक में उद्धृत ८९)
कुन्तलेश्वर की पुत्री नहायी हुई बैठी है, आज अङ्गराज की बहिन की बारी है, कमला ने यह रात्रि जुए में जीत ली है, आज देवी को भी प्रसत्र करना है- इस प्रकार अन्तःपुर की सुन्दरियों के प्रति जान कर जब मैंने राजा को सूचित किया तो महाराज कुछ निश्चय न करने के कारण मूढ मन से दो तीन घड़ी स्तब्ध रहे।।34।।
अथोपपति:
लङ्घिताचारया यस्तु विनापि विधिना स्त्रिया ।। ८३।।
सङ्केतं नीयते प्रोक्तो. बुधैरुपपतिस्तु सः । यथा
भर्ता निःश्वसितेऽप्यसूयति मनोजिघ्रः सपत्नीजनः श्वश्रूरिङ्गितदैवतं नयनयोरीहालिहो यातरः । लद्रादयमञ्जलिः किममुना दृग्भङ्गिपातेन ते
वैदग्धीरचनाप्रपञ्चरसिक! व्यर्थोऽयमत्र श्रमः ।।35।।
२. उपपति- विधिपूर्वक विवाह किये बिना ही आचार का उल्लङ्घन करने वाली स्त्री के द्वारा जो (नायक) सङ्केत (सम्भोग के लिए पहले से ही निश्चित) स्थान पर (सम्भोग के लिए) ले जाया जाता है, वह (नायक) आचार्यों द्वारा उपपति कहा गया है।।८३उ.-८४पू.॥
जैसे- (कोई परकीया नायिका अपने उपपति से कहती है)
पति साँस लेने पर भी शङ्का करता है, सपत्नियाँ मन की बात जानने की कोशिश करती हैं, सास किये गये सड्केत की देवता (जानने वाली) हैं, भौरे आँखों के सेवक हैं, इसलिए हे कुशल रचना को प्रदर्शित करने वाले रसिक! दूर से ही मैं ये हाथ जोड़ रही हूँ, तुम्हारे इस कटाक्षपूर्वक देखने से क्या लाभ है, यहाँ यह तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ है।।३५॥
दाक्षिण्यमानुकूल्यं च धाष्ट्यं चानियतत्वतः ।।८४।।
नोचितान्यस्य शाठ्यं स्यादन्यचित्तत्वसम्भवात् ।।
उपपति के वय॑गुण- प्रसङ्ग (उपपति के अनुकूल) न होने के कारण दाक्षिण्य, आनुकूल्य तथा धृष्टता- ये (गुण) उपपति के लिए उचित (उपयुक्त) नहीं होता, दूसरी (नायिका) के प्रति चित्त होने से उत्पन्न शठता ही (उपपति का) गुण होता है।।८४उ.-८५पू.।।