________________
| २६ |
रसार्णवसुधाकरः
जैसे (रघुवंश १९.२२) में
जब स्त्रियाँ देखती थीं कि स्वप्न में बड़बड़ाते हुए राजा अग्निमित्र दूसरी स्त्री की बड़ाई कर रहा है तब वे स्त्रियाँ बिना बोले ही बिस्तर के कोने पर आँसू गिराती हुई क्रोध से कङ्गन को तोड़कर और उससे पीठ फेर कर सो जाती थीं, इस प्रकार उससे रूठ कर उसका तिरस्कार करती थी । ।32 ।।
अथ धृष्ट:
धृष्टो व्यक्तान्ययुवति भोगलक्ष्मा विनिर्भयः ।। ८२ ।। यथा ममैव
को दोषो मणिमालिका यदि भवेत् कण्ठे न किं शङ्करो
धत्ते भूषणमर्धचन्द्रममलं चन्द्रे न किं कालिमा । तत्साध्वेव कृतं भणितिभिर्नैवापराद्धं त्वया
भाग्यं द्रष्टुमनीशयैव भवतः कान्तापराद्धं मया । 133 ।।
(इ) धृष्ट (नायक) -
जिस नायक के अङ्गों पर अन्य युवति के साथ सम्भोग करने के विद्यमान चिह्न स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं तथा वह (पहली नायिका से) भयरहित होता है, वह धृष्ट नायक कहलाता है ॥ ८२ ॥
जैसे मेरा (शिङ्गभूपाल का) ही
यदि मणिमालिका (मणिनिर्मित माला) गले में नहीं है, तो इसमें दोष ही क्या है (अर्थात् दोष नहीं है)। क्या शङ्कर जी निर्मल अर्धचन्द्र को धारण नहीं करते हैं (अर्थात् अवश्य धारण करते हैं) और उस चन्द्रमा में क्या कालिमा (दाग) नहीं है (अर्थात् अवश्य है)। तो आप ने (परनायिका से सम्भोग करके) अच्छा ही किया, अच्छा ही किया, इसमें आप द्वारा अपराध नहीं किया गया। (यह तो अपराध मेरा है कि) मैं आप के इस सौभाग्य को देखने के लिए सक्षम नहीं हूँ — इस प्रकार (वक्रोक्ति) से कहने वाली नायिका के प्रति मैंने (परस्त्रीगमन का) अपराध किया है। 13311
अथ दक्षिण:
नायिकास्वप्येनेकासु तुल्यो दक्षिण उच्यते ।। ८२ ।। यथा- (दशरूपके उद्घृतम् ८९ ) -
स्नाता तिष्ठति कुन्तलेश्वरसुता वारोऽङ्गराजस्वसुद्यूते रात्रिरियं जिता कमलया देवी प्रसाद्याद्य च । इत्यन्तःपुरसुन्दरी प्रति मया विज्ञाय विज्ञापिते