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प्रथमो विलासः
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मालिङ्गतीति सहसा परिवर्तमाना । आलम्बिता करतले परिवेपमाना
सा सम्भ्रमात् सहचरीमवलम्बते स्म ।।40।।
रति में वामता जैसे शिङ्गभूपाल का ही- अपने हार की मणि में प्रतिबिम्बित प्रियतम को देखकर "आलिङ्गन कर रहा है" इस प्रकार सहसा पीछे मुड़ी हुई हथेलियों का आश्रय लेकर काँपती हुई वह नायिका भ्रम के कारण सखियों का सहारा लिया।।40।।
मृदुकोपत्वं यथा
व्यावृत्तिक्रमणोद्यमेऽपि पदयोः प्रत्युद्गतौ वर्तनं भ्रूभेदोऽपि तदीक्षणव्यसनिना व्यस्मारि मे चक्षुषा । चाटूक्तानि करोति दग्धरसना रूक्षाक्षरेऽप्युद्यता
सख्यः! किं करवाणि मानसमये सङ्घातभेदो मम ।।41 ।। मृदुकोपता जैसे
(कोई नायिका अपनी सखी से कह रही है कि) हे सखि! (प्रियतम के आने पर) वहाँ से हटने का प्रयत्न करने पर भी (मेरे) पैरों का आगे बढ़ना रुक गया, उस (प्रियतम) को देखने में दुर्बल हुई मेरी आँखों के द्वारा भौहों की कुटिलता को भी भुला दिया गया, कर्कश शब्द बोलने के लिए उद्यत हुई आग में तपी हुई करधनी (मधुर ध्वनि से उस प्रियतम की) चाटुकारिता करने लगी। हे सखि! क्या करूँ, उस मान के समय मेरे (अङ्गों का) समूह (मुझसे) अलग हो गया (अर्थात् ये मेरा विरोध करने लगे) ।।41 ।।
सव्रीडसुरतप्रयत्नं यथा (रत्नावल्याम् १.२)
औत्सुक्येन कृतत्वरा सहभुवा व्यावर्तमाना ह्रिया तैस्तैर्बन्धुवधूजनस्य वचनैर्नीताभिमुख्यं पुनः । दृष्ट्वाग्रे वरमात्तसाध्वसरसा गौरी नवे सङ्गमे
संरोहत्पुलका हरेण हसता श्लिष्टा शिवायास्तु ते ।।42 ।। सव्रीड सुरतप्रयत्न जैसे (रत्नावली १.२ में)
परिणयोपरान्त नव (प्रथम) समागम में उत्सुकता से शीघ्रता करने वाली स्वाभाविक रूप से लज्जा के कारण वापस लौटने का उपक्रम किये हुये, प्रियजन (भौजाई आदि) के अनेक प्रकार के वचनों से पुनः सम्मुख ले जायी गयी सामने पति (शिवजी) को देखकर भयभीत तथा रोमाञ्चयुक्त, हंसते हुए शिव जी द्वारा आलिङ्गन की गयी पार्वती जी तुम सब सामाजिकों के कल्याण के लिए होवें अर्थात् तुम सब का कल्याण करें।।42।।
परिणयोपरान्त नवसमागम में पार्वती की लज्जा का कथन हुआ है।