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प्रथमो विलासः
यहाँ राम के दृढ़व्रतत्व (दृढ़निश्चय) का कथन हुआ है। तितिक्षावत्वं यथा (शिशुपालवधे १६.२५) -
प्रतिवाचमदत्त केशवः शपमानाय न चेदिभुभुजे । अनुहुंकुरुते घनध्वनिं न तु गोपायुरुतानि केशरी ।। 21 ।। सहिष्णुता जैसे (शिशुपालवध में ) -
श्री कृष्ण ने शाप को प्राप्त चेदिनरेश (शिशुपाल ) के लिए प्रत्युत्तर नहीं दिया क्योंकि सिंह सियारों के रोने पर घोर गर्जना नहीं करता ॥ २१ ॥
आत्मश्लाघापराङ्मुखत्वं यथा ( रघुवंशे १५ / २७) - तस्य संस्तूयमानस्य चरितार्थैस्तपस्विभिः ।
शुशुभे विक्रमोदग्रं व्रीडयावनतं शिरः ।।22।। आत्मप्रशंसा से विमुखता (जैसे रघुवंश १५.२७ में ) -
जब तपस्वियों का काम पूरा हो गया तब वे शत्रुघ्न की बड़ाई करने लगे पर अपनी प्रशंसा सुनकर शत्रुघ्न ने शील के मारे लजा कर अपना शिर नीचे कर लिया ॥ २२ ॥ यहाँ शत्रुघ्न की आत्मप्रशंसा (आत्मश्लाघा) से विमुखता का कथन है । निगूढाहङ्कारत्वं यथा (अनर्घराघवे ४.३५)
भूमात्रं कियदेतदर्णवमितं तत्साधितं
यद्वीरेण भवादृशेन वदता त्रिस्सप्तकृत्वो जयम् । डिम्भोऽहं नवबाहुरीदृशमिदं घोरं च वीरव्रतं तत्क्रोधाद् विरम प्रसीद भगवञ्जात्यैव पूज्योऽसि नः ।। 23।। निगूढाहङ्कार वाला जैसे ( अनर्घराघव ४. ३५) में ) -
धैर्य से मुस्कराते हुए श्री राम परशुराम से कहते हैं— समुद्रवेष्ठित इस पृथ्वी को प्राप्त करके आप ने दान में दे दिया, यह कौन-सी बड़ी बात है, आप ने तो पृथ्वी को इक्कीस बार जीता है। मैं नवबाहुशाली बालक हूँ और यह वीर व्रत बड़ा भयङ्कर है। क्रोध छोड़िये, आप मेरे लिए जन्म से ही आदणीय हैं ।। 23 ।।
यहाँ राम का निगूढाहङ्कार है। अथ धीरललितः
[ २१ ]
निश्चिन्तो धीरललितस्तरुणो वनितावशः ।
यथा ( रघवंशे १९.४)
सोऽधिकारमभिकः कुलोचितं
काश्चन स्वयमवर्तयत् समाः ।