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प्रथमो विलासः
जैसे (रघुवंश १६.८ में)
हे कल्याणि! तुम कौन हो? किसकी पत्नी हो? अथवा मेरे पास तुम्हारे आने का कारण क्या है? जितेन्द्रिय रघुवंशियों का मन परायी स्त्री से विमुख स्वभाव वाला (जेहि सपनेहुँ पर नारि न हेरी) मान कर बोलो।।11।।
अथ मानिता___ अकार्पण्यसहिष्णुत्वं कथिता मानशालिता ।।६९।। यथा (अनर्घराघवे ३.४१)
सन्तुष्टे तिसृणां पुरामपि रिपौ कण्डूलदोर्मण्डलक्रीडाकृतपुनःप्ररूढशिरसो वीरस्य लिप्सोर्वरम् । याञ्च्यादैन्यपराञ्चि यस्य कलहायन्ते मिथस्त्वं वृणु
त्वं वृण्वित्यभितो मुखानि स दशग्रीवः कथं कथ्यते ।।12।। मानिता- लघुता (दैन्य) को सहन न करना मानशालिता कहा जाता है।।६९उ.।। जैसे- अनर्घराघव (३.४१)
(शौष्कल जनक से रावण के मुखों की मानशालिता का वर्णन करते हुए कहता हैराजर्षि जनक!) त्रिपुर (नामक राक्षस) के शत्रु (शिव) के प्रसन्न हो जाने पर भी खुजलाहट धारी भुजाओं ने जब अनायास ही सभी शिर काट दिये, रावण वर प्राप्त करना चाहता भी था, परन्तु याचना दैन्य-विमुख उसके सभी मुख “तुम माँगो, तुम माँगो" कह कर परस्पर झगड़ने लगे थे, उस रावण का क्या वर्णन किया जाय।।12।।
___ यहाँ रावण के मुखों द्वारा याचना करने के दैन्य की असहनीयता होने से मानशालिता है।
अथ तेजस्विता
तेजस्वित्वमवज्ञादेरसहिष्णुत्वमुच्यते। यथा (महावीरचरिते २.१७)
सोऽयं त्रिसप्तवारानविकलसकलक्षत्रतन्त्रप्रमाथो वीरः क्रौञ्चस्य भेदी कृतधरणितलापूर्वहंसावतारः । जेता हेरम्बभृङ्गिप्रमुखगणचमूचक्रिणस्तारकारे
स्त्वां पृच्छञ्जामदग्न्यः स्वगुरुहरधनुर्भङ्गरोषादुपैति ।।13।।
तेजस्विता- अनादर(तिरस्कार) इत्यादि का सहन न करना तेजस्विता कहलाता है।।७० पू.॥
जैसे (महावीरचरित २.१७ में)-1