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प्रथमो विलासः
न्याय के
एतैरन्यैश्च तनयैः सोऽयं शिङ्गमहीपतिः ।
षड्भिः प्रतिष्ठामयते स्वामिवाङ्गै सुसङ्गतैः ।। ४० ।।
और इस प्रकार के अन्य पुत्रों से युक्त वे ये शिङ्गभूपाल मानों ६ अङ्गों से सुसङ्गत होकर अपनी प्रतिष्ठा को विस्तृत कर रहे थे || ४०॥
[ ९ ]
राजा स राजाचलनामधेयामध्यास्त वंशक्रमराजधानीम् ।
सतां च रक्षामसतां च शिक्षां न्यायानुरोधादनुसन्दधार ।। ४१ ।।
वे राजा (शिङ्गभूपाल) वंशपरम्परा वाली राजाचल नामक राजधानी में रहते थे और अनुसार सज्जनों को सुरक्षा तथा दुष्टों को शिक्षा (दण्ड) ग्रहण कराते थे || ४१ || विन्ध्यश्रीशैलमध्यक्ष्मामण्डलं पालयन् सुतैः ।
वंशप्रवर्तकैरर्थान् भुङ्क्ते भोगपुरन्दरः ।।४२।।
वंशप्रवर्तक पुत्रों के साथ विन्ध्य और श्रीपर्वत के मध्यवर्ती भूमण्डल का पालन करते हुए इन्द्र के समान भोगों का उपभोग कर रहे थे ||४२ ॥
तस्मिन् शासति शिङ्गभूमिरमणे क्ष्मामन्नपोतात्मजे काठिन्यं कुचमण्डले तरलता नेत्राञ्चचले सुध्रुवाम् । वैषम्यं त्रिवलीषु मन्दपदता लीलालसायां गतौ कौटिल्यं चिकुरेषु किञ्च कृशता मध्ये परं बाध्यते ।। ४३ ।।
उस शिङ्गभूमि पर रमण करने वाले तथा अनपोत (अनन्त) के पुत्र (शिङ्गभूपाल)
के पृथिवी पर शासन करने पर (कामिनियों के) स्तनमण्डल में कठोरता थी ( व्यवहार में कठोरता नहीं थी । सुन्दर भौहों वाली (तरुणियों) के नेत्रों के कोनों में तरलता (स्निग्धता ) थी ( दुःख के कारण आँसू बहने से नहीं)। बालों में कुटिलता (मोड़, झुकाव ) था ( विचारों में नहीं) और क्या ! (तरुणियों के) कमर में अत्यधिक कृशता (पतलापन) बँधा था ( कष्ट के कारण कोई दुर्बल नहीं था ) || ४३ ॥
सोऽहं कल्याणरूपस्य वर्णोत्कर्षैककारकम् ।
विद्वत्प्रसादनाहेतोर्वक्ष्ये नाट्यस्य लक्षणम् ।। ४४ ।।
वह (पूर्वोक्त गुणों वाला) मैं (शिङ्गभूपाल) विद्वानों की प्रसन्नता के लिए कल्याणस्वरूप नाट्य (रूपक) का (सभी) वर्णों के उत्कर्ष को करने वाले नाट्य के लक्षण को कह रहा हूँ
(निरूपित कर रहा हूँ) ||४४||
पुरा पुरन्दराद्यास्ते प्रणम्य चतुराननम् । कृताञ्जलिपुटा भूत्वा पप्रच्छुः सर्ववेदिनम् ।। ४५ ।। भगवन् श्रोतुमिच्छामः श्राव्यं दृश्यं मनोहरम् ।