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पवयणसारो । आप ही साधकतम है अर्थात् अपने भाव से ही आपका स्वरूप झलकता है इसलिये यह आत्मा आप ही करण है। विकार रहित परमानन्दमयी एक परिणतिरूप लक्षण को रखने वाला शुद्धात्मभाव रूप क्रिया के द्वारा अपने आपको अपना स्वभाव समर्पण करने के कारण यह आत्मा आप ही सम्प्रदान स्वरूप है, तैसे ही पूर्व में रहने वाले मति श्रुत आदि ज्ञान के विकल्पों के नाश होने पर भी अखंडित एक चैतन्य के प्रकाश के द्वारा अपने अविनाशी स्वभाव से ही यह आत्मा आपका (स्वयं का) प्रकाश करता है, इसलिये यह आत्मा आप ही अपादान है तथा यह निश्चय शुद्धचैतन्य आदि गुण स्वभाव का स्वयं ही आधार होने से आप ही स्वयं ही अधिकरण होता है। इस तरह अभेदषट्कारक से स्वयं ही परिणमन करता हुआ यह आत्मा परमात्मस्वभाव लथा केवलज्ञान की उत्पत्ति में भिन्न कारक की अपेक्षा नहीं रखता है, इसलिये आप ही स्वयंभू कहलाता है ।।१६।।।
- इस प्रकार सर्वज्ञ को मुख्यता से प्रथम गाथा और स्वयंभू की मुख्यता से दूसरी पाया इस तरह पहले स्थल में दो गाथाएँ पूर्ण हुईं।
अथ स्वयम्भुवस्यास्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्यात्यन्तमनपायित्वं कथचिदुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वं चालोचयति
भंगविहूणो' य भवो संभवपरिवज्जिदों विणासो हि। विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो' ॥१७॥
भङ्गविहीनश्च भव संभवपरियजितो विनाशो हि ।
विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः ॥१७॥ अस्य खल्वात्मनः शुद्धोपयोगप्रसादात् शुद्धात्मस्वभावेन यो भवः स पुनस्तेन रूपेण प्रलयाभावाङ्गविहीनः । यस्त्वशुद्धात्मस्वभावेन विनाशः स पुनरुत्पादाभावात्संभवपरिवर्जितः । अतोऽस्य सिद्धत्वेनानपायित्वम् । एवमपि स्थितिसंभवनाशसमवायोऽस्य न विप्रतिविध्यते, भङ्गरहितोत्पादेन संभवजितविनाशेन तदद्वयाधारभूतद्रव्येण च समवेतत्वात् ॥१७॥
भूमिका-अब, स्वयंभू (स्वयं द्वारा उत्पन्न हुए) इस आत्मा के शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के अत्यन्त अविनाशीपने को और कंथचित् (कोई प्रकार से) उत्पाद-व्यय-प्रौव्ययुक्तपने का विचार करते हैं
___ अन्वयार्थ-[भंगविहीनः भवः] (उस शुद्ध आत्म स्वभाव को प्राप्त आत्मा के) विनाश रहित उत्पाद है, और [संभवपरिजितः विनाशः हि] उत्पाद रहित विनाश है
१. भंगविहीणो (ज० वृ०)। २. संभवपरिवज्जिओ (ज० वृ०)। ३. विष्णासो ति (ज० वृ.) । ४. समवाओ (ज० वृ०)।