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[ पवयणसारो
सार-इस कारण से निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकपने का सम्बन्ध नहीं है, जिससे शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति के लिये सामग्री (बाह्य साधन) ढूंढने की व्यग्रता से परतन्त्र हुआ आवे।
__ भावार्थ-अभेवषट्कारकरूप से स्वतः ही परिणमता हुआ, यह आत्मा परमात्मस्वभाव होने से स्वयंभू है क्योंकि केवलज्ञान ही उत्पत्ति के समय में वह भिन्न कारक की अपेक्षा नहीं रखता, इस कारण से स्वयंभू है ।
तात्पर्यवृत्ति अथ शुद्धोपयोगजन्यस्य शद्धात्मस्वभावलाभस्य भिन्नकारकनिरपेक्षत्वेनात्माधीनत्वं प्रकाशयति
तह सो लक्षसहायो यथा निश्चयरत्नत्रयलक्षणशुद्धोपयोगप्रसादात्सर्व जानाति तथैव सः पूर्वोक्त लब्धशुद्धात्मस्वभावः सन् आदा अयमात्मा हवदि सयंभु त्ति णिदिवठो स्वयम्भूर्भवतीति निदिष्टः कथितः । किं विशिष्टो भूतः ? सरवण्हू सम्वलोयपविमहिदो भूदो सर्वज्ञः सर्व लोकपतिमहितश्च भूत: संजातः । कथम् ? सयमेव निश्चयेन स्वयमेवेति । तथाहि-अभिन्न कारकचिदानन्दैकचैतन्यस्वस्वभावेन स्वतन्त्रत्वात् कर्ता भवति । नित्यानन्दै कस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात कर्मकारक भवति । शुद्धचैतन्यस्वभावेन साधकतमत्वाकरणकारकं भवति । निविकारपरमानन्दकपरिणतिलक्षणेन पशु द्वारमभावरूपफर्मणा समाश्रियमाणत्वात्संप्रदानं भवति । तथैव पूर्व मत्यादिज्ञानबिकल्पविनाशेप्यखण्डितंकचैतन्यप्रकाशेनाविनश्वरत्वादपादानं भवति । निश्चयशुद्धचैतन्यादिगुणस्वभावात्मनः स्वमेवा. धारत्वादधिकरणं भवतीत्यभेदषटकारकीरूपेण स्वत एव परिणममानः सन्नयमात्मा परमात्मस्वभावकेबल ज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे यतो भिन्नकारक नापेक्षते ततः स्वयंभर्भवतीति भावार्थ: ।। १६॥
एवं सर्वज्ञमुख्यत्वेन प्रथमगाथा । स्वयंभूमुख्यत्वेन द्वितीया चेति प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् ।
उस्थानिका-आगे कहते हैं कि शुद्धोपयोग से उत्पन्न जो शुद्ध आत्मा का लाभ है, उसके होने में भिन्न कारक की आवश्यकता नहीं है, किन्तु अपने आत्मा ही के अधीन है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(तह) तथा (सो आदा) वह आत्मा (सयमेव) स्वयं ही (लद्धसहावो भूदो) स्वभाव का लाभ करता हुआ अर्थात निश्चय-रत्नत्रय लक्षणमय शुद्धोपयोग के प्रसाद से जैसे आत्मा सर्व का ज्ञाता हो जाता है वैसा वह शुद्ध आत्मा के स्वभाव का लाभ करता हुआ (सम्वाहू ) सर्वज्ञ व (सव्वलोयपदिमहिदो) सर्व लोक का पति तथा पूजनीय (हवदि) हो जाता है इसलिये वह (सयंभु त्ति) स्वयंभू इस नाम से (णिट्ठिो ) कहा गया है ।
___ भाव यह है कि निश्चय से कर्ता कर्म आदि छः कारक आत्मा में ही हैं। अभिन्न कारक की अपेक्षा यह आत्मा चिदानन्दमयी एक चैतन्य स्वभाव के द्वारा स्वतन्त्रता रखने से स्वयं ही अपने भाव का कर्ता है तथा नित्य आनन्दमय एक स्वभाव से स्वयं अपने स्वभाव को प्राप्त होता है । इसलिये यह आत्मा स्वयं ही कर्म है, शुद्ध चैतन्य स्वभाव से यह आत्मा