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पद्मपुराणे तस्याः श्रोणी वरारोहा कान्तिसंप्लावितांशुका । वीक्षितोन्मूलयेत् स्वान्तं समूलमपि योगिनाम् ॥४०॥ मुक्त्वा भवन्तमन्यस्य सेयं कस्योचिता मवेत् । यत्नं वस्तुनि कुर्वन्ना जायतां योग्यसंगमः ॥४१॥ इत्युक्त्वा चरितार्थः सन्नारदोऽगान्मनीषितम् । दध्यौ भामण्डलोऽप्येवं स्मरसायकताडितः ॥४२॥ क्षेपिष्टं प्रमदारत्नं न लभेयं यदीदृशम् । न जीवेयं तदावश्यं स्मराकुलितमानसः ॥४३॥ धारयन्ती परां कान्तिमियं मे हृदयस्थिता । कथं नं कुरुते तापमग्निज्वालेव सुन्दरी ॥४४॥ दहति त्वचमेवार्को बहिरन्तश्च मन्मथः । अन्तर्द्धिरस्ति सूर्यस्य मन्मथस्य न विद्यते ॥४५॥ द्वयमेव ध्रवं मन्ये प्राप्तव्यमधुना मया। तया वा संगमः साकं मरणं वा स्मरेंषुभिः ॥४६॥ अनारतमिति ध्यायन्नशने शयने न च । न प्रासादे न चोद्याने ति भामण्डलोऽगमत् ॥४७॥ स्त्रियोऽथ नारदं मत्वा कुमारासुखकारणम् । ससंभ्रमं समुद्विग्नाः पितुरस्य न्यवेदयन् ॥४८॥ नाथानर्थसमुद्गेन' नारदेनाहृता पटे । चित्रीकृत्याङ्गना कापि'' रूपातिशययोगिनी ॥४९॥ समालोक्य कुमारस्तां विह्वलीभूतमानसः । धर्ति न लमते क्वापि त्रपया दूरमुज्झितः ॥५०॥ मुहस्तामोक्षते कन्यां सीताशब्दं समुच्चरन् । करोति विविधां चेष्टां वायुनेव वशीकृतः ॥५१॥ उपायश्चिन्त्यतामाशु तस्योत्पादयितुं धृतिम् । यावन्न मुच्यते प्राणैर्भोजनादिपराङ्मुखः ॥५२॥
रही हो ॥३९॥ कान्तिसे वस्त्रको तिरोहित करनेवाले उसके नितम्ब यदि देखने में आ जावें तो निश्चित ही वह योगियोंके मनको भी समूल उखाड़कर फेंक दें ॥४०॥ आपको छोड़कर और यह किसके योग्य हो सकती है ? इस कार्यमें यत्न करो जिससे योग्य समागम प्राप्त हो सके ॥४१।। इतना कहकर नारद तो कृतकृत्य हो इच्छित स्थानपर चला गया पर इधर भामण्डल कामके बाणोंसे ताड़ित हो इस प्रकार विचार करने लगा कि ॥४२॥ चूंकि मेरा मन कामसे इतना आकुल हो रहा है कि यदि मैं शीघ्र ही इस स्त्रीरत्नको नहीं पाता हूँ तो अवश्य ही जीवित नहीं रह सकूँगा ॥४३।।
परम कान्तिको धारण करनेवाली यह सुन्दरी प्रमदा मेरे हृदयमें स्थित है फिर अग्निकी ज्वालाके समान सन्ताप क्यों कर रही है ॥४४॥ सूर्य सिर्फ बाहरी चमड़ेको जलाता है पर काम भीतरी भागको जलाता है। इतनेपर भी सूर्य अस्त हो जाता है पर काम कभी अस्त नहीं होता ॥४५॥ इस समय तो ऐसा जान पड़ता है कि मेरे द्वारा दो ही वस्तुएँ प्राप्त करने योग्य हैं-एक तो उस स्त्रीरत्नके साथ समागम और दूसरा कामके बाणोंसे मारा जाना ॥४६॥ इस प्रकार निरन्तर उसीका ध्यान करता हुआ भामण्डल न भोजनमें, न शयनमें, न महलमें और न उद्यानमें-कहीं भी धैर्यको प्राप्त हो रहा था ॥४७॥
अथानन्त
नन्तर जब स्त्रियोंको पता चला कि कमारके दःखका कारण नारद है तब उन्होंने उद्विग्न होकर शीघ्र ही कुमारके पितासे यह समाचार कहा ॥४८॥ कि इस समस्त अनर्थका पिटारा नारद ही है। वही कहींकी एक अत्यन्त सुन्दरी स्त्रीको चित्रपटपर अंकित करके लाया था ॥४९|| उसे देखकर जिसका मन अत्यन्त विह्वल हो गया है ऐसा कुमार किसी भी वस्तुमें धैर्यको प्राप्त नहीं हो रहा है। लज्जाने उसे दूरसे ही छोड़ दिया है ॥५०॥ वह सीता शब्दका उच्चारण करता हुआ बार-बार उसी कन्याको देखता रहता है तथा वायुके वशीभूत हुएके समान नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करता रहता है ।।५१।। वह भोजनादि समस्त कार्योंसे विमुख हो गया है अर्थात् उसने खाना-पीना सब छोड़ दिया है। इसलिए जबतक प्राण इसे नहीं छोड़ते हैं तबतक १. -न्मूलयत् म.। २. पुमान् । ३. योग्यसमागमसहितः। ४. शीघ्रम् । ५. हृदयं स्थिता म., ज.। ६. च म. । ७. -मतिघ्यायन् म.। ८. समुद्विग्ना म.। ९. न्यवेदयत् म.। १०. तथानर्थसमुद्गेन म., नार्यानर्थब.। अनर्थसमुद्गेन = अनर्थक रण्डकेन । ११. क्वापि म.।
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