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अष्टचत्वारिंशत्तमं पर्व
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नैमित्तादिष्टकालस्य संप्राप्तश्च ममावधिः । आत्मीयमधुना राज्यं कतु यामि निजं पुरम् ॥१६९॥ राज्यस्थस्य प्रमादाश्च जायन्ते गणनोज्झिताः । एतच्च छिद्रमासाद्य नियतं नाशकारणम् ॥१७॥ 'गृहाणतत्ततस्तुभ्यं यच्छामि वलयं पुरम् । उपसर्गविनिमुक्तं यदि वाञ्छसि जीवितम् ॥१७॥ लब्धस्य च पुनर्दानं शंसन्ति सुमहाफलम् । यशश्च प्राप्यते लोके पूजयन्ति च तं जनाः ॥१७२।। ततस्तमेवमित्युक्त्वा गृहीत्वाङ्गदमायसम् । आत्मश्रेयो गतो धाम सुभानुश्च निजं निजम् ॥१७३।। यावत्पत्नी नरेन्द्रस्य दष्टा श्वसनभोजिना । निश्चेष्टा दग्धुमानीता चितोद्देशे स पश्यति ॥१७॥ कटकस्य प्रसादेन तस्य लोहमयस्य ताम् । जीवयित्वा परं प्रापदसौ पूजां नरेन्द्रतः ॥१७५॥ महान्तस्तस्य संजाता भोगाः परमसौख्यदाः । सर्वबन्धुसमेतस्य पुण्यकर्मानुभावतः ॥१७६॥ उत्तरीयांशुकस्योर्ध्व निधाय वलयं सरः । प्रविष्टो यावदादाय गोधेरोऽनश्यदुद्धतः ॥१७७॥ महातरोरधस्तावत् प्रविवेश विलं महत् । शिलानिकरसंछन्नं निरिं घोरनिस्वनम् ॥१७८॥ तेन गोधेरशब्देन किल नित्यप्रवृत्तिना । बभूव स्थानमप्येतत्प्रलयाशक्तिमानसम् ।।१७९॥ आत्मश्रेयस्ततो वृक्षमुन्मूल्य स शिलाधनम् । गोधेरं नाशयित्वा तं निधानं प्राप्य साङ्गदम् ॥१०॥ आत्मश्रेयःसमः पद्मः सीता वलयमूर्तिवत् । प्रमादवच्च कौसीधे शब्दस्तच्छब्दवद्रिपोः ॥१८॥ महानिधानवल्लका गोधेरो दशवक्रकः । जनास्त इव निर्भीता यूयं भवत सांप्रतम् ॥१८२।।
है ॥१६८॥ निमित्तज्ञानीने मुझे भ्रमण करनेके लिए जो समय बताया था अब उसकी अवधि आ गयी है इसलिए मैं अपना राज्य करनेके लिए अपने नगरको जाता हूँ ॥१६९॥ राज्य कार्यमें स्थिर रहनेवाले पुरुषके अगणित प्रमाद होते रहते हैं और किसी प्रमादको पाकर यह कड़ा निश्चित हो नाशका कारण बन सकता है ॥१७०।। इसलिए यदि तू उपसर्ग रहित जीवन चाहता है तो इस उत्तम कड़ेको ले ले मैं तुझे देता हूँ ॥१७१॥ अपने लिए प्राप्त हुई वस्तुका दूसरेके लिए दे देना महाफलकारक है, उससे यश प्राप्त होता है और लोग उसकी पूजा करते हैं ॥१७२॥ तदनन्तर उससे 'ऐसा ही हो' इस प्रकार कहकर तथा लोहेका कड़ा लेकर आत्मश्रेय अपने घर चला गया और सुभानु भी अपने नगर चला गया ॥१७३।। इतने में ही राजाकी पत्नीको सांपने डंस लिया था जिससे वह निश्चेष्ट हो गयी थी तथा जलानेके लिए श्मशानमें लायी गयी थी। आत्मश्रेयने उसे देखा ॥१७४।। और देखते ही उस लोह निर्मित कड़ेके प्रसादसे उसे जिलाकर उसने राजासे बहुत सन्मान प्राप्त किया ।।१७५।। अब पुण्य कर्मके प्रभावसे उसके लिए समस्त बन्धुओंके साथ-साथ परम सुख देनेवाले बड़े-बड़े भोग प्राप्त हो गये ॥१७६॥ एक बार उसने उस कड़ेको उत्तरीय वस्त्रके ऊपर रखकर जबतक सरोवरमें प्रवेश किया तबतक एक उद्दण्ड गहेरा उसे लेकर चला गया ॥१७७॥ वह गुहेरा एक महावृक्षके नीचे बने हुए अपने बड़े बिलमें घुस गया। उसका वह बिल शिलाओंके समूहसे आच्छादित, प्रवेश करनेके अयोग्य तथा भयंकर शब्दसे युक्त था ॥१७८।। वह गुहेरा उस बिलमें बैठकर निरन्तर शब्द करता रहता था जिससे उस बिलको देख मनमें प्रलयकी आशंका होती थी॥१७९।। तदनन्तर आत्मश्रेयने शिलाओंसे सघन उस वृक्षके मूलको उखाड़कर तथा गुहेरेको मारकर कड़ेके साथ-साथ उसका सब खजाना ले लिया ॥१८०।। सो राम तो आत्मश्रेयके समान हैं, सीता कड़ेके समान है. लाभकी इच्छा प्रमादके समान है, शत्रुका शब्द गुहेरेके शब्दके समान है, लंका महानिधानके समान है, रावण गुहेरेके समान है, इसलिए हे विद्याधरो! तुम सब इस समय निर्भय होओ ॥१८१-१८२॥ १. गृहाण तत्त्वतस्तुभ्यं ज.। २. गृहीताङ्गद म.। ३. श्वसनभोगिना म.। नागेनेत्यर्थः । ४. श्मसाने । ५. दूर्वतः म. ।
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