________________
एकषष्टितम पर्व
३८७
वंशस्थवृत्तम् उपात्तपुण्यो जननान्तरे जनः करोति योगं परमरिहोत्सवैः । न केवलं स्वस्य परस्य' भूयसा रविर्यथा सर्वपदार्थदर्शनात् ॥२४॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मपुराणे सुग्रीवभामण्डलसमाश्वासनं नामै कषष्टितमं पर्व ॥६॥
पवित्र कथा सुनकर जो हर्षरूपो महारसके सागरमें निमग्न हो परम प्रीतिको धारण कर रहे थे, ऐसे देवोंके समान समस्त विद्याधर राजाओंने, विकसित कमलोंके समान नेत्रोंको धारण करनेवाले उन देवपूजित राम-लक्ष्मणकी सब प्रकारसे पूजा को ।।२३।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जन्मान्तरमें पुण्यका संचय करनेवाला मनुष्य, इस संसारमें न केवल अपने आपका ही उत्तम उत्सवोंसे संयोग करता है किन्तु सूर्यके समान समस्त पदार्थों को दिखाकर अन्य लोगोंका भी अत्यधिक वैभवके साथ संयोग करता है अर्थात् पुण्यात्मा मनुष्य स्वयं वैभवको प्राप्त होता है और दूसरोंको भी वैभव प्राप्त कराता है ॥२४॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्यकथित पद्मपुराणमें सुग्रीव और भामण्डलका नागपाश
से युक्त हो आश्वासन प्राप्तिका वर्णन करनेवाला इकसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥६॥
१. परेण म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org