Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 417
________________ चतुःषष्टितमं पर्व नियतं मरणं ज्ञात्वा लक्ष्मणस्य दशाननः । पुत्रभ्रातृवधं बुद्धौ चकारात्यन्तदुःखितः ॥१॥ हा भ्रातः परमोदार ममात्यन्तहितोद्यतः । कथमेतामवाप्नोषि बन्धावस्थामसंगताम् ॥२॥ हा पुत्रौ सुमहावीर्यो भुजाविव दृढौ मम । विधेर्नियोगतः प्राप्तौ भवन्तौ बन्धनं नवम् ॥३॥ किं करिष्यति वः शत्रुरित्याकुलितमानसः । न वेद्मि दुरितात्माहं विरसं वा करिष्यति ॥४॥ भवद्भिरुत्तमः प्रोतैबंन्धदुःखं समागतेः । बाध्येऽहं नितरां कष्ट किमिदं मम वत्तेते ॥५॥ एवं गजेन्द्रवद्बद्ध निजयूथमहागजः । अप्रकाशं परं शोकमसेवत स संततम् ॥६॥ शक्त्या हतं गतं भूमिं श्रुत्वा लक्ष्मीधरं परम् । संप्राप्ता जानकी शोकमकरोत्परिदेवनम् ॥७॥ हा भद्र लक्ष्मण प्राष्टस्त्वमवस्थामिमां हताम् । कृते मे मन्दभाग्याया विनीत गुणभूषण ॥८॥ ईदक्षमपि वाञ्छामि भवन्तमहमीक्षितुम् । विमुना हतदेवेन न लभे पापकारिणी ।।१।। भवन्तं तादृशं वीरं नता पापेन शत्रुणा । क्व मे कृतो न संदेहः प्रवीरे मरणं प्रति ॥१०॥ वियुक्तो बन्धुमिः भ्रातुरिष्टे संसक्तमानसः । अवस्थामागतोऽस्येतां कृच्छ्रादुत्तीर्य सागरम् ॥११॥ अपि नाम पुनः क्रीडाकोविदं विनयान्वितम् । पश्येयं चारुवाक्यं वा परमाद्भुतकारिणम् ॥१२॥ अथानन्तर रावण लक्ष्मणका मरण निश्चित जान अत्यन्त दुखी होता हुआ मनमें पुत्रों और भाईके बधका विचार करने लगा। भावार्थ-रावणको यह निश्चय हो गया कि शक्तिके प्रहारसे लक्ष्मण अवश्य मर गया होगा और उसके प्रतिकारस्वरूप रामपक्षके लोगोंने कैद किये हए इन्द्रजित् तथा मेघवाहन इन दो पुत्रों और कुम्भकर्ण भाईको अवश्य मार डाला होगा । इस विचारसे वह मन ही मन बहुत दुःखी हुआ ॥१|वह विलाप करने लगा कि हाय भाई ! तू अत्यन्त उदार था और मेरा हित करने में सदा उद्यत रहता था सो इस अयुक्त बन्धनकी अवस्थाको कैसे प्राप्त हो गया ? ॥२।। हाय पुत्रो! तुम तो महाबलवान् और मेरी भुजाओंके समान दृढ़ थे । कमके नियोगसे ही तुम इस नूतन बन्धनको प्राप्त हुए हो ।।३।। शत्रु तुम लोगोंका क्या करेगा ? यह सोचकर मेरा मन अत्यन्त व्याकुल हो रहा है। मैं पापी शत्रुके कर्तव्यको नहीं जानता हूँ अथवा निश्चित ही है कि वह अनिष्ट ही करेगा अर्थात् तुम्हें मारेगा ही ॥४॥ आप-जैसे उत्तम, प्रीतिके पात्र पुरुष बन्धनके दुःखको प्राप्त हुए हैं इसलिए मैं अत्यधिक पीडाको प्राप्त हो रहा हूँ। हाय, यह कष्ट मुझे क्यों रहा है ? ॥५।। इस प्रकार जिसके यूथ-झुण्डका महागज पकड़ लिया गया है ऐसे अन्य गजराजकी तरह वह रावण निरन्तर अप्रकट रूपसे मन ही मन शोकका अनुभव करने लगा ॥६॥ तदनन्तर जब सीताने सुना कि लक्ष्मण शक्तिसे घायल हो पृथिवीपर गिर पड़े हैं तब वह शोकको प्राप्त हो विलाप करने लगी ।।७। वह कहने लगी कि हाय भाई लक्ष्मण ! हाय विनीत ! हाय गुण रूपी आभूषणसे सहित ! तुम मुझ अभागिनीके लिए इस अवस्थाको प्राप्त हुए हो ॥८|| यद्यपि मैं इस तरह संकटमें पड़ी हुई भी तुम्हारा दर्शन करना चाहती हूँ तथापि मैं अभागिनी पापिनी आपका दर्शन नहीं पा रही हूँ ॥९|| आप-जैसे वीरको मारते हुए पापी शत्रुने किस वीरके मारनेका सन्देह मुझे उत्पन्न नहीं किया है ? अर्थात् जब उसने आप-जैसे वीरको मार डाला है तब वह प्रत्येक बोरको मार सकता है ।।१०।। तुम भाईका भला करने में चिन्ता लगा पहले बन्धुजनोंसे बिछोहको प्राप्त हुए और अब बड़ी कठिनाईसे समुद्रको पार कर इस अवस्थाको प्राप्त हुए हो ॥११॥ क्या मैं क्रीड़ा करने में निपुण विनयी, सुन्दर वचन बोलनेवाले एवं परम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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