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पद्मपुराणे सप्तकक्ष्यादृसंपन्ना कृतदिक्चयनिर्गमा । बहिः कवचितैर्योधैर्गुप्ता कार्मुकधारिमिः ॥२९॥ प्रथमे गोपुरे नीलश्चापपाणिः प्रतिष्ठितः । द्वितीये तु नलस्तस्थौ गदाहस्तो धनोपमः ॥३०॥ विमीषणस्तृतीये तु शूलपाणिमहामनाः । स्रडमाल्यचित्ररत्नांशरीशानवदशोमत ॥३१॥ संनद्धबद्धतूणीरस्तुरीये कुमुदः स्थितः । सुषेणः पञ्चमे ज्ञेयः कुन्तहस्तः प्रतापवान् ॥३२।। सुपीवरभुजो वीरः सुग्रीवः स्वयमेव च । रराज मिण्डिमालेन षष्ठे वज्रधरोपमः ॥३३॥ प्रदेशे सप्तमे राजमहारिपुबळान्तकः । मण्डलाग्रं समाकृष्य स्वयं भामण्डलः स्थितः ॥३४॥ पूर्वद्वारेण संचारे शरभः शरमध्वजः । रराज पश्चिमे द्वारे कुमारो जाम्बवो यथा ॥३५॥ प्रदेशमौत्तरद्वारं व्यायामात्यौघसंकुलम् । स्थितश्चन्द्रमरीचिश्च बालिपुत्रो महाबलः ॥३६॥ एवं विरचिता क्षोणी खेचरेशः प्रयनिभिः । रराज द्यौरिवात्यर्थ निर्मलैरुडुमण्डलैः ॥३७॥ यावन्तः केचिदन्ये तु समरादनिवर्तिनः। ते स्थिता दक्षिणामाशां व्याप्य वानरकेतवः ॥३८॥
उपजातिवृत्तम् एवं प्रयत्नाः कृतयोग्यरक्षाः संदेहिनो लक्ष्मणजीवयोगे । सविस्मयाः सोरुशुचः समानाः स्थिताः समस्ता गगनायनेशाः ॥३९॥ न तन्नरा नो ययवो न नागा न चापि देवा विनिवारयन्ति ।
यदात्मना संजनितस्य लभ्य-फलं नृणां कर्मरवेः प्रकाशम् ॥४०॥ इत्या रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मपराणे शक्तिभेदरामविलापाभिधानं नाम त्रिषष्टितमं पर्व ॥६३॥ उस भूमिको सात चौकियोंसे युक्त किया,दिशाओंमें आवागमन बन्द किया और कवच तथा धनुषको धारण करनेवाले योद्धाओंने बाहर खड़े रह उसकी रक्षा की ॥२९।। पहले गोपुरपर धनुष हाथ में लेकर नील बैठा, दूसरे गोपुरमें गदा हाथमें धारण करनेवाला मेघतुल्य नल खड़ा हुआ, तीसरे गोपुरमें हाथमें शूल धारण करनेवाला उदारचेता विभीषण खड़ा हुआ। वहाँ जिसकी मालाओंमें लगे नाना प्रकारके रत्नोंकी किरणें सब ओर फैल रही थीं ऐसा विभीषण ऐशानेन्द्रके समान सुशोभित हो रहा था ॥३०-३१।। कवच और तरकसको धारण करनेवाला कुमुद चौथे गोपुरपर खड़ा हुआ। पांचवें गोपुरमें भाला हाथमें लिये प्रतापी सुषेण खड़ा हुआ ॥३२॥ जिसकी भुजाएँ अत्यन्त स्थूल थीं और भिण्डिमाल नामक शस्त्रसे इन्द्रके समान जान पड़ता था ऐसा वीर सुग्रीव स्वयं छठवें गोपुरमें सुशोभित हो रहा था। तथा सातवें गोपुरमें बड़े-बड़े शत्रुराजाओंकी सेनाको मौतके घाट उतारनेवाला भामण्डल स्वयं तलवार खींचकर खड़ा था ॥३३-३४।। पूर्व द्वारके मार्गमें शरभ चिह्नसे चिह्नित ध्वजाको धारण करनेवाला शरभ पहरा दे रहा था. पश्चिम द्वारमें जाम्बव कुमार सुशोभित हो रहा था और मन्त्रिसमूहसे युक्त उत्तर द्वारको घेरकर चन्द्ररश्मि नामका बालिका महाबलवान् पुत्र खड़ा हुआ था ।।३५-३६|| इस प्रकार प्रयत्नशील विद्याधर राजाओंके द्वारा रची हुई वह भूमि, निर्मल नक्षत्रोंके समूहसे आकाशके समान अत्यन्त सुशोभित हो रही थी ॥३७।। इनके सिवाय युद्धसे नहीं लौटनेवाले जो अन्य वानरध्वज राजा थे वे सब दक्षिण दिशाको व्याप्त कर खड़े हो गये ॥३८॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! जिन्होंने इस प्रकार प्रयत्न कर योग्य रक्षा की थी, जिन्हें लक्ष्मणके जीवित होने में सन्देह था, जो आश्चयंसे युक्त थे, बहुत भारी शोकसे सहित थे एवं मानी थे ऐसे सब विद्याधर राजा यथास्थान खड़े हो गये ॥३९।। अपने ही द्वारा अजित कर्मरूपी सूर्यके प्रकाशस्वरूप जो फल मनुष्योंको प्राप्त होनेवाला है उसे न मनुष्य दूर कर सकते हैं, न घोड़े, न हाथी, और न देव भी ॥४०॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविपेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराणमें शक्तिभेद एवं
रामविलापका वर्णन करनेवाला तिरसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥६३॥ १. कक्ष्याद्रि -म. । २. दिक्क्रय-म. ।
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