________________
त्रिषष्टितमं पर्व ततः समाकुलस्वान्तः पद्मः शोकेन ताडितः । परिप्राप तमुद्देशं यत्र तिष्टति लक्ष्मणः ॥१॥ निर्विचेष्टं तमालोक्य क्षितिमण्डलमण्डनम् । शक्त्याऽऽलिङ्गितवक्षस्कं पद्मो मूर्छामुपागतः ॥२॥ संप्राप्य च चिरात् संज्ञा महाशोकसमन्वितः । दुःखाग्निदीपितोऽत्यन्तं विप्रलापमसेवत ॥३॥ हा वस्स विधियोगेन महादुर्लध्यमर्णवम् । उत्तीर्य संगतोऽस्यतामवस्थामतिदारुणाम् ॥४॥ अयि मद्भक्तिसच्चेष्टो मदर्थ सततोद्यतः । क्षिप्रं प्रयच्छ मे वाचं किं मौनेनावतिष्टसे ॥५॥ जानास्येव वियोगं ते मुहूर्तमपि नो सहे । कुर्वालिङ्गनमुत्तिष्ट व गतोऽसौ तवादरः ।।६।। अद्य केयूरदष्टौ मे भुजावेतौ महायतौ । भावमात्रकरौ जातो निष्क्रियौ निष्प्रयोजनौ ॥७॥ निक्षेपो गुरुभिस्त्वं मे प्रयत्नेन समर्पितः । गत्वा किमुत्तरं तेभ्यो दास्यामि पयोज्झितः ॥८॥ क सौमित्रिः क्व सौमित्रिरिति गाई समुत्सुकः । लोकोऽपि हि समस्तो में प्रक्ष्यति प्रेमनिर्भरः ।।९।। रत्नं पुरुषवीराणां हारयित्वा स्वकामहम् । मन्ये जीवितमात्मीयं हतं निहतपौरुषः ॥१०॥ दुष्कृतस्योदयस्थस्य रचितस्य भवान्तरे । फलमेतन्मया प्राप्त सीतया मे किमन्यथा ॥११।। यस्याः कृते क्षतोरस्कं शक्त्या निर्दयनुन्नया । भवन्तं भूतले सुप्तं पश्यामि दृढमानसः ।।१२॥ कामार्थाः सुलभाः सर्वे पुरुषस्यागमास्तथा। विविधाश्चैव संबन्धा विष्टपेऽस्मिन् यथा तथा ।।१३॥ पर्यट्य पृथिवीं सर्वां स्थानं पश्यामि तन्ननु । यस्मिन्नवाप्यते भ्राता जननी जनकोऽपि वा ॥१४॥
अथानन्तर जिनका चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा था तथा जो शोकसे पीड़ित हो रहे थे ऐसे श्रीराम उस स्थानपर पहुंचे जहाँ लक्ष्मण पड़े थे ।।१।। जिनका वक्षःस्थल शक्तिसे आलिंगित था ऐसे पृथिवीतलके अलंकारस्वरूप लक्ष्मणको निश्चेष्ट देख राम मूर्छाको प्राप्त हो गये ।।२।। चिरकाल बाद जब सचेत हुए तव महाशोकसे युक्त एवं दुःखरूपी अग्निसे जलते हुए अत्यन्त विलाप करने लगे ॥३॥ वे कहने लगे कि हाय वत्स! तू कर्मयोगसे इस दुलंध्य सागर को उल्लंघ कर अब इस अत्यन्त कठिन दशाको प्राप्त हुआ है ।।४॥ अये वत्स ! तू सदा मेरो भक्तिमें सचेष्ट रहता था और मेरे कार्यके लिए सदा तत्पर रहता था, अतः शीघ्र ही मुझे वचन दे-मुझसे वार्तालाप कर, मोनसे क्यों बैठा है ? ||५|| तू यह तो जानता ही है कि मैं तेरा वियोग महूर्त-भरके लिए भी सहन नहीं कर सकता हूँ अतः उठ आलिंगन कर, तेरा वह आदर कहाँ गया? ॥६॥ आज बाजूबन्दसे सुशोभित मेरी ये लम्बी भुजाएँ नाममात्रकी रह गयीं, तेरे बिना सर्वथा निष्फल और निष्क्रिय हो गयीं ॥७॥ माता-पिता आदि गुरुजनोंने तुझे धरोहरके रूपमें प्रयत्नपूर्वक मेरे लिए सौंपा था, अब मैं लज्जारहित हुआ जाकर उन्हें क्या उत्तर दूंगा ? ॥८॥ प्रेमसे भरे समस्त लोग अत्यन्त उत्सुक हो मुझसे पूछेगे कि लक्ष्मण कहाँ है ? लक्ष्मण कहाँ है ? ॥९॥ तू वीर पुरुषोंमें रत्नके समान था सो तुझे हराकर मैं पुरुषार्थहीन आ अपने जीवनको नष्ट हुआ समझता हूँ ॥१०॥ भवान्तरम जो मेने दुष्कृत-पाप कर्म किया था वह इस समय उदयमें आ रहा है। और उसीका फल मुझे प्राप्त हुआ है, हे भाई! मुझे तेरे बिना सीतासे क्या प्रयोजन है ? ॥११॥ मुझे उस सीतासे क्या प्रयोजन है जिसके लिए निर्दय-रावणके द्वारा चलायी हुई शक्तिसे तेरा वक्षःस्थल विदीर्ण हुआ है तथा मैं कठोर हृदय हो तुझे पृथिवीपर सोया हुआ देख रहा हूँ ॥१२॥ इस संसारमें पुरुपको काम और अर्थ तथा नाना प्रकारके सम्बन्ध सर्वत्र सुलभ हैं ॥१३।। समस्त पृथिवीमें घूमकर मैं वह स्थान नहीं देख सका जिसमें भाई, माता तथा पिता पुनः प्राप्त हो सकते हों ॥१४॥ १. परिप्राप्तस्तमुद्देशं म. । २. -क्षितो रक्तं म. । ३. द्विविधा- म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org