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पद्मपुराणे
क्षुत्तृष्णापरिदग्धाङ्गा शोकसागरवर्त्तिनी । फलपर्णादिभिर्वृत्तिमकरोद्दीनमानसा ॥७०॥ अरण्याम्बुजखण्डानां शोभासर्वं स्वमर्दनः । हिमकालस्तया निन्ये ध्रुवं कर्मानुभावतः ॥ ७१ ॥ पशुगणस्तीः शोषितानेकपादपः । सोढस्तथैव रूक्षाङ्गो ग्रीष्मसूर्यातपस्तथा ॥७२॥ स्फुरच्चण्डाचिरब्ज्योतिः शीतधारान्धकारितः । घनकालोऽपि निस्तीर्णः प्रवृत्तौधो यथा तथा ॥७३॥ निश्छायं स्फुटितं क्षामं शीर्णकेशं मलावृतम् । वर्षोपहतचित्रामं स्थितं तस्याः शरीरकम् ॥७४॥ सूर्यालोकहतच्छाया क्षीणेव शशिनः कला । जाता तन्वी तनुस्तस्या लावण्यपरिवर्जिता ॥ ७५॥ कपित्थवनमानग्रं फलैः पाकाभिधूसरैः । श्रित्वा तातमनुध्याय करुणं सा स्म रोदिति ॥७६॥ जाता चक्रधरेणाऽहं प्राप्तावस्थामिमां वने । ध्रुवं कर्मानुभावेन सुपापेनान्यजन्मना ॥७७॥ इत्यश्रुदुदिनोभूतवदना वीक्षितक्षितिः । फलान्यादाय सा शान्ता पतितानि स्वपाकतः ॥ ७८ ॥ उपवासैः कृशीभूता परं षष्ठाष्टमादिभिः । अम्बुना वाकरोद् बाला पारणामेकवेलिकाम् ॥७९॥ शयनीयगतैः पुष्पैर्या स्वकेशच्युतैरपि । अग्रहीत् खेदमेवासौ स्थण्डिलेऽशेत केले ॥८०॥ पितुः संगीतकं श्रुत्वा या प्रबोधमसेवत । सेयं शिवादिनिर्मुक्तैरधुना भीषणैः स्वनैः ॥८१॥ एवं वर्षसहस्राणि त्रीणि दुःखमहासहा । अकरोत्सा तपो बाह्यं प्रासुकाहारपारणा ||८२ ॥ ततो निर्वेदमापन्ना त्यक्त्वाहारं चतुर्विधम् । निराशतां गता धीरा श्रिता सल्लेखनामसौ ||८३||
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था || ६९|| तदनन्तर भूख-प्यासकी बाधासे जिसका शरीर झुलस गया था, जो निरन्तर शोकरूपी सागर में निमग्न रहती थी और जिसका मन अत्यन्त दीन हो गया था ऐसी अनंगसेना फल तथा पत्रोंसे निर्वाह करने लगी || ७० ॥ वनके कमलसमूहकी शोभाका सर्वस्व हरनेवाला शीत काल आया सो उसने कर्मों का फल भोगते हुए व्यतीत किया || ७१ || जिसमें पशुओं के समूह साँसें भरते थे, अनेक वृक्ष सूख गये थे, तथा जिससे शरीर अत्यन्त रूक्ष पड़ गया था ऐसे ग्रीष्म ऋतुके सूर्यका आतप उसने उसी प्रकार सहन किया ||७२ || जिसमें तीक्ष्ण बिजली कौंध रही थी, शीतल जलधारासे अन्धकार फैल रहा था, और नदियोंके प्रवाह बढ़ रहे थे ऐसा वर्षा काल भी उसने जिस किसी तरह पूर्णं किया ॥७३॥ कान्तिहीन, फटा, दुबला, बिखरे बालोंसे युक्त एवं मलसे आवृत उसका शरीर वर्षासे भीगे चित्रके समान निष्प्रभ हो गया था ||३४|| जिस प्रकार चन्द्रमाकी क्षीण कला सूर्य प्रकाशसे निष्प्रभ हो जाती है उसी प्रकार उसका दुर्बल शरीर लावण्यसे रहित हो गया || ७५ || परिपाकके कारण धूसर वर्णसे युक्त फलोंसे झुके हुए कैथाओंके वनमें जाकर वह बार-बार पिताका स्मरण कर रोने लगती थी || ७६ || मैं चक्रवर्तीसे उत्पन्न हो वनमें इस दशाको प्राप्त हो रही हूँ सो निश्चित ही जन्मान्तरमें किये हुए पापकर्मके उदयसे मेरो यह दशा हुई है ||७७ || इस प्रकार अविरल अश्रुवर्षासे जिसका मुख दुर्दिनके समान हो गया था ऐसी वह अनंगसेना नीची दृष्टिसे पृथिवीकी ओर देख पक जानेके कारण अपने आप गिरे हुए फल लेकर शान्त हो जाती थी ||७८ || वेला-तेला आदि उपवासोंसे जिसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था ऐसी वह बाला जब कभी केवल पानीसे ही पारणा करती थी सो भी एक ही बार || ७९ || जो अनंगसेना पहले अपने केशोंसे च्युत हो शय्या पर पड़े फूलोंसे भी खेदको प्राप्त होती थी आज वह मात्र पृथिवीपर शयन करती थी ॥८०॥ जो पहले पिताका संगीत सुन जागती थी वह आज शृगाल आदि के द्वारा छोड़े हुए भयंकर शब्द सुनकर जागती थी ॥ ८१|| इस प्रकार महादुःख सहन करती तथा बीच-बीचमें प्रासुक आहारकी पारणा करती हुई उस अनंगसेनाने तीन हजार वर्ष तक बाह्य तप किया ||८२|| तदनन्तर जब वह निराशता को प्राप्त हो गयी तब विरक्त हो उस धीर-वीराने चारों प्रकारका आहार त्यागकर सल्लेखना धारण कर ली ॥८३॥ १. एष श्लोको म. पुस्तके नास्ति । २. श्वेतकेवले । ३ त्यक्ताहारं ।
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