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पञ्चषष्टितमं पर्व
४१३
'त्यक्त्वोपपादाङ्गशिलामिवासौ रणक्षितिं देव इवोद्यकायः । उत्थाय रुष्टः ककुमो निरीक्ष्य क्वासी गतो रावण इत्युवाच ॥७॥ ततः प्रफुल्लाम्बुजलोचनेन महामिनन्दं भजताऽग्रजेन । उदाररोमाञ्चसुककंशन प्रोक्तः परिष्वज्य लसद्जेन ॥७१। कृतार्थवत्तात दशाननोऽसौ हत्वा मवन्तं विजहार शक्त्या । त्वमप्यमुष्याश्चरितेन जीवं भूयोऽभः संस्तुतकन्यकायाः ॥७२॥ निःशेषतश्चास्य निवेदितं तच्छक्त्याहतिप्रेरणवस्तुवृत्तम् । अपूर्वमाश्चर्यमुदारभावं सुविस्मितैर्जाम्बवसुन्दराद्यैः ॥७३॥ तावत् त्रिवर्णाजविलासिनेत्रां शरत्समृद्धेन्दुसमानवक्ताम् । सातोदरीं दिग्गजकुम्भशोमिस्तनद्वयां नूतनयौवनस्थाम् ॥७॥ शरीरबद्धामिव मन्मथस्य क्रीडा विशालालससनितम्बाम् । संगृह्य शोमामिव सार्वलोकां विनिर्मितां कर्मभिरेकतानैः ॥७५॥ तां वीक्ष्य लक्ष्मीनिलयोऽन्तिकस्थामचिन्तयद् विस्मयरुद्धचित्तः । लक्ष्मीरियं किन्नु सुरेश्वरस्य कान्तिर्नु चन्द्रस्य नु भानुदीप्तिः॥७६।। ध्यायन्तमेवं परिगम्य योषास्तमेवमूचुः कुशलप्रधानाः । स्वामिन् बिवाहोत्सवमेतया ते दृष्ट जनो वान्छति संगतोऽयम् ॥७७।। कृतस्मितोऽसावगदत् समीपे ससंशये युक्तमिदं कथं नु।। ऊचुः पुनस्ते ननु वृत्त एव स्पर्शोऽनया ते प्रकटस्तु नासीत् ॥७॥
प्रकार उपपाद शय्याको छोड़कर उत्तम शरीरका धारक देव उठकर खड़ा होता है उसी प्रकार लक्ष्मण भी रणभूमिको छोड़ खड़े हो गये और दिशाओंकी ओर देख रुष्ट होते हुए बोले कि वह रावण कहां गया ? ॥७०।। तदनन्तर जिनके नेत्रकमल विकसित हो रहे थे जो महान् आनन्दको प्राप्त थे, उत्कट रोमांचोंसे जिनका शरीर ककंश हो रहा था और जिनकी भुजाएँ अतिशय शोभायमान थों ऐसे बड़े भाई श्रीरामने आलिंगन कर कहा कि हे तात! रावण तो शक्तिके द्वारा आपको मार कृतकृत्यकी तरह चला गया है और तुम भी इस प्रशस्त कन्याके चरित्रसे पुनर्जन्मको प्राप्त हुए हो ॥७१-७२।। तत्पश्चात् अत्यन्त आश्चर्यको प्राप्त हुए जाम्बव और सुन्दर आदिने शक्ति लगनेसे लेकर समस्त वृत्तान्त लक्ष्मणके लिए निवेदन किया-सुनाया तथा उदार भावनासे युक्त अपूर्व आश्चर्य प्रकट किया ॥७३॥
तदनन्तर जिसके नेत्र लाल सफेद और नीले इन तीन रंगके कमलोंके समान सुशोभित थे, जिसका मुख शरदऋतुके पूर्णचन्द्रमाके समान था, जिसका उदर कृश था, जिसके दोनों स्तन दिग्गजके गण्डस्थलके समान सुशोभित थे, जो नूतन यौवन अवस्थामें स्थित थी जो, मानो शरीरधारिणी कामकी क्रीड़ा ही थी, जिसके उत्तम नितम्ब विशाल तथा अलसाये हुए थे, और जिसे कर्मोंने एकाग्र चित्त हो सवं संसारकी शोभा ग्रहण कर ही मानो बनाया था |७४-७५।। ऐसी समीपमें स्थित उस विशल्याको देख लक्ष्मणने आश्चर्यसे अवरुद्ध चित्त हो विचार किया कि क्या यह इन्द्रकी लक्ष्मी है ? या चन्द्रमाकी कान्ति है ? अथवा सूर्यकी प्रभा है ? ||७६|| इस प्रकार चिन्ता करते हुए लक्ष्मणको देख, मंगलाचार करने में निपुण स्त्रियाँ उनसे बोलीं कि हे स्वामिन् ! यहाँ इकट्ठे हुए सब लोग इसके साथ आपका विवाहोत्सव देखना चाहते हैं ॥७७॥ यह सुन
१. त्वत्कोप-म. । २. भुजः म. ।
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