Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 430
________________ ४१२ पद्मपुराणे सुता तु द्रोणमेघस्य हियालंकृतदेहिका । पादपद्मद्वयं पानं प्रणम्य विहिताञ्जलिः ॥५८॥ विद्याधरमहामन्त्रिवचोमिः कृतशंसना । वन्दिता खेचरैरन्यैराशीभिरभिनन्दिता ।।५९॥ शक्रस्येव शची पार्श्वे लक्ष्मणस्य सुलक्ष्मणा । अवस्थिता महाभाग्या सखीवचनकारिणी ।।६।। मुग्धा मुग्धमृगीनेत्रा पूर्णचन्द्रनिभानना । महानुरागसंभारप्रेरितोदारमानसा ॥६१॥ परिष्वज्य रहो नाथं सुखसुप्तं महीतले । सुकुमारकराम्भोजसंवाहनसुचारुणा ॥२॥ गोशीषचन्दनेनैवमन्वलिम्पत सर्वतः । तथा पद्ममपि ब्रीडाकिंचित्कम्पितपाणिका ॥६३॥ शेषाः कन्या यथायोग्यं शेषाणां खेचरेशिनाम् । चन्दनेनास्पृशन्गात्रं विशल्याहस्तसंगिना ॥४॥ विशल्याहस्तसंस्पृष्टं चन्दनं पद्मवाक्यतः । कान्तमिन्द्रजितादीनामुपनीतं यथाक्रमम् ॥६५॥ शीतलं तं समाघ्राय कृत्वाङ्गेषु च सादरम् । निर्वृति परमां प्राप्ताः शुद्धात्मानो गतज्वराः ॥६६॥ उपजातिवृत्तम् अन्ये च योधाः क्षतविक्षताङ्गा द्विपास्तुरङ्गाः पदचारिणश्च । अभ्युक्षितास्तत्सलिलेन जाता प्रणष्टशल्या नवमास्कराङ्गाः ॥६७।। जन्मान्तरं प्राप्त इवाथ कान्तः स्वभावनिद्रामिव सेवमानः । उत्थाप्यते स्म प्रवरैनितान्तं संगीतकैर्वेणुनिनादगीतः ॥६८॥ ततः शनैरुच्छ्वसितोरुवक्षा नेत्रे समुन्मील्य तिगिञ्छताम्र । विक्षिप्तबाहुः शनकैनिकुम्च्य लक्ष्मीधरोऽमुञ्चत मोहशय्याम् ॥१९॥ अथा अथानन्तर जिसका शरीर लज्जासे अलंकृत था, जिसने श्रीरामके चरण-कमलोंमें प्रणाम कर हाथ जोड़े थे, विद्याधर महामन्त्रियोंके वचनोंसे जिसकी प्रशंसा की गयी थी, अन्य विद्याधरों ने जिसे वन्दना कर शुभाशीर्वादसे अभिनन्दित किया था, जो उत्तम लक्षणोंको धारण करनेवाली थो; महाभाग्यवती थी, और सखियोंकी आज्ञाकारिणी थी ऐसी द्रोणमेघकी पुत्री विशल्या लक्ष्मणके पास जाकर उस प्रकार खड़ी हो गयी जिस प्रकार मानो इन्द्रके पास इन्द्राणी ही खड़ी हो ।।५८-६०|| जो अत्यन्त सुन्दरी थी, भोली मृगीके समान जिसके नेत्र थे, पूर्णचन्द्रके समान जिसका मुख था, और महा अनुरागके भारसे जिसका उदार हृदय प्रेरित था ऐसी विशल्याने एका तमें पृथिवी तल पर सुखसे सोये हुए प्राणनाथ लक्ष्मणका आलिंगन कर उन्हें सूकोमल हस्तकमलमें स्थित होनेसे अत्यन्त सुन्दर दिखनेवाले गोशीर्ष चन्दनसे खूब अनुलिप्त किया तथा लज्जासे कुछ-कुछ कांपते हुए हाथसे श्रीरामको भी चन्दनका लेप लगाया ॥६१-६३।। शेष कन्याओंने विशल्याके हाथमें स्थित चन्दनके द्वारा अन्य विद्याधरोंके शरीरका स्पर्श किया ॥६४।। श्रीरामके आज्ञानुसार विशल्याके हाथका छुआ सुन्दर चन्दन यथाक्रमसे इन्द्रजित आदिके पास भी भेजा गया ॥६५॥ सो उस शीतल चन्दनको सूंघकर तथा आदरके साथ शरीर पर लगाकर वे सब परम सुखको प्राप्त हुए । सबकी आत्माएँ शुद्ध हो गयी तथा सबका ज्वर जाता रहा ॥६६॥ इन सबके सिवाय क्षत-विक्षत शरीरके धारक जो अन्य योधा, हाथी, घोड़े और पैदल सैनिक थे वे सब उसके जलसे सींचे जाकर शल्यरहित तथा नूतन सूर्य-प्रातःकालीन सूर्यके समान देदीप्यमान शरीरसे युक्त हो गये ॥६७।। अथानन्तर जो दूसरे जन्मको प्राप्त हुए के समान सुन्दर थे और मानो स्वाभाविक निद्राका ही सेवन कर रहे थे ऐसे लक्ष्मणको बाँसुरीकी मधुर तानसे मिश्रित उत्तम संगीतके द्वारा उठाया गया ॥६८।। तदनन्तर जिनका विशाल वक्षःस्थल धीरे-धीरे उच्छ्वसित हो रहा था और जिनकी भुजाएँ फैली हुई थीं ऐसे लक्ष्मणने कमलके समान लाल नेत्र खोलकर तथा भुजाओंको संकोचित कर मोहरूपी शय्याका परित्याग किया ॥६९।। जिस १. पद्मस्येदं पाद्म रामसम्बन्धि, पद्म म., ब. । २. पदकारिणश्च म., ज.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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