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पञ्चषष्टितमं पर्व
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निजे भुजे समुत्कृत्य शिरातन्त्री मनोहराम् । उपवीणयता दिव्यं जिनेन्द्र चरितं शुभम् ॥४४॥ लब्धाऽहं दशवक्त्रेण धरणान्नागराजतः । कम्पितासनतः प्राप्तात्प्रमोदं बिभ्रतः परम् ॥ ४५ ॥ अनिच्छन्नप्यसौ तेन रक्षसां परमेश्वरः । मां परिप्राहितः कृच्छ्रात् स हि ग्रहणदुर्विधः ॥ ४६ ॥ साहं न कस्यचिच्छक्या मुवनेऽत्र व्यपोहितुम् । विशल्यासुन्दरीमेकां मुक्त्वा दुःसहतेजसम् ||४७ ॥ मन्ये पराजये देवान् बलिनो नितरामपि । अनया तु विकीर्णाहं महत्या दूरगोचरा ||४८ ॥ अनुष्णं भास्करं कुर्यादशीतं शशलक्ष्मणम् । अनया हि तपोऽत्युग्रं चरितं पूर्वजन्मनि ॥ ४९ ॥ शिरीषकुसुमासारं शरीरमनया पुरा । निर्युक्तं तपसि प्रायो मुनीनामपि दुःसहे ॥५०॥
तावतैव संसारः सुसारः प्रतिभाति मे । ईदृशानि प्रसाध्यन्ते यत्तपांसीह जन्तुभिः ॥ ५१ ॥ वर्षाशीतातपैर्घोरैर्महावातसुदुःसहैः । एषा न कम्पिता तन्वी मन्दरस्येव चूलिका ॥ ५२ ॥ अहो रूपमहो सत्वमहो धर्मदृढं मनः । अशक्यं ध्यातुमप्यस्याः सुतपोऽन्याङ्गनाजनैः ॥५३॥ सर्वथा जिनचन्द्राणां मतेनोदबृहते तपः । लोकत्रये जयत्येकं यस्येदं फलमीदृशम् ||५४ || अथवा नैव विज्ञेयमाश्चर्यमिदमीदृशम् । प्राप्यते येन निर्वाणं किमन्यत्तस्य दुष्करम् ॥५५॥ पराधीनक्रिया साहं तपसा निर्जितानया । व्रजामि स्वं पदं साधो' क्षम्यतां दुर्विचेष्टितम् ||५६ ॥ एवं कृतसमालापां तत्त्वज्ञः शक्तिदेवताम् । विसृज्यावस्थितो वातिः स्वसैन्येऽद्भुतचेष्टितः ||५७||
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बालमुनि प्रतिमा योगसे विराजमान थे तब रावणने जिन - प्रतिमाओंके समीप भुजाकी नाड़ी रूपी मनोहर तन्त्री निकाल कर जिनेन्द्र भगवान्का दिव्य एवं शुभचरित वीणाद्वारा गाया था। रावण की भक्तिके प्रभावसे धरणेन्द्रका आसन कम्पायमान हुआ था जिससे परम प्रमोदको धारण करते हुए उसने वहाँ आकर रावणके लिए मुझे दिया था । यद्यपि राक्षसोंका इन्द्र रावण मुझे नहीं चाहता था तथापि धरणेन्द्रने प्रेरणाकर बड़ी कठिनाईसे मुझे स्वीकृत कराया था । यथार्थमें रावण किसीसे वस्तुग्रहण करने में सदा संकुचित रहता था ॥४३ - ४६ ।। वह मैं, इस संसारमें दुःसह तेजकी धारक एक विशल्याको छोड़ और किसीकी पकड़में नहीं आ सकती ||४७|| मैं अतिशय बलवान् देवों को भी पराजित कर देती हूँ किन्तु इस विशल्याने दूर रहने पर भी मुझे पृथक् कर दिया ॥४८॥ यह सूर्यको ठण्डा और चन्द्रमाको गरम कर सकती है क्योंकि इसने पूर्वंभवमें ऐसा ही अत्यन्त कठिन तपश्चरण किया है ॥४९॥| इसने पूर्वभव में अपना शिरीषके फूलके समान सुकुमार शरीर ऐसे तपमें लगाया था कि जो प्रायः मुनियोंके लिए भी कठिन था ॥ ५०॥ मुझे इतने ही कार्यंसे संसार सारभूत जान पड़ता है कि इसमें जीवों द्वारा ऐसे-ऐसे कठिन तप सिद्ध किये जाते हैं ॥ ५१ ॥ तीव्र वायुसे जिनका सहन करना कठिन था ऐसे भयंकर वर्षा शीत और घामसे यह कृशांगी सुमेरुकी चूलिका के समान रंचमात्र भी कम्पित नहीं हुई ॥५२॥ अहो इसका रूप धन्य है, अहो इसका धैर्य धन्य है और अहो धर्म में दृढ़ रहनेवाला इसका मन धन्य है । इसने जो तप किया है अन्य स्त्रियाँ उसका ध्यान भी नहीं कर सकतीं ॥ ५३ ॥ सर्वथा जिनेन्द्र भगवान् के मतमें ही ऐसा विशाल तप धारण किया जाता है कि जिसका इस प्रकारका फल तीनों लोकोंमें एक जुदा ही जयवन्त रहता है || ५४ ॥ अथवा इसे कोई आश्चयं नहीं मानना चाहिए क्योंकि जिससे मोक्ष प्राप्त हो सकता है। उसके लिए और दूसरा कौन कार्य कठिन है ? ॥५५॥ मेरा काम तो पराधीन है देखिए न, इसने मुझे तपसे जीत लिया । हे सत्पुरुष ! अब में अपने स्थान पर जाती हूँ - मेरी दुश्चेष्टा क्षमा की जाय ॥ ५६ ॥ इस प्रकार वार्तालाप करनेवाली उस शक्तिरूपी देवताको छोड़कर तत्त्वका जानकार तथा अद्भुत 'चेष्टाका धारक हनुमान् अपनी सेनामें स्थित हो गया ॥५७॥
१. कम्पितासनकं म. । २. बिभ्रता म. 1 ३ तेजसाम् म० । ४. सान्ये म. । ५. हनुमान् ।
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