Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 427
________________ पञ्चषष्टितम पर्व ४०९ पार्थिवप्रतिमः कश्चिद्धनी कान्तामुदाहरत् । कान्ते बुद्धयस्व किं शेषे किमपीदमशोमनम् ॥१४॥ राजालये समुद्योतो लक्ष्यते जावलक्षितः । सन्नद्धा रथिनो मत्ता करिणोऽमी च संहिताः ॥१५॥ नीतिज्ञः सततं भाग्यमप्रमत्तैः सुपण्डितः । उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोपाय स्वापतेयं प्रयत्नतः ॥१६॥ शातकौम्मानिमान्कुम्भान् कलधौतमयांस्तथा । मणिरत्नकरण्डांश्च कुरु भूमिगृहान्तरे ॥१७॥ पट्टवस्त्रादिसंपूर्णानिमान् गर्मालयान् द्रुतम् । तालयान्यदपि द्रव्यं दुःस्थितं सुस्थितं कुरु ॥१०॥ शत्रुघ्नोऽपि सुसंभ्रान्तो निद्रारुणितलोचनः । आरुह्य द्विरदं शीघ्रं घण्टाटङ्कारनादिनम् ॥१९।। सचिवैः परमैर्यतः शस्त्राधिष्टितपाणिभिः । विमुञ्चन् बकुलामोदं चलदम्बरपल्लवः ॥२०॥ भरतस्यालयं प्राप्तस्तथाऽन्ये नरपुङ्गवाः । शस्त्रहस्ताः सुसंनद्धा नरेन्द्रहिततत्पराः ॥२१॥ यच्छन्नाज्ञा नरेशानां युद्धाय स्वयमुद्यतः। विनीताधिपतिः प्रोक्तो नत्वा भामण्डलादिमिः ॥२२॥ दूरे लङ्कापुरी देव गन्तुं नार्हति तां विभुः । क्षुब्धोर्मिजलजो घोरो वर्त्तते सागरोऽन्तरे ॥२३॥ मया किं तर्हि कर्त्तव्यमिति राज्ञि कृतस्वने । उच्चारितं विशल्यायाश्चरितं तैर्मनोहरम् ॥२४॥ अघप्रमथनं नाथ पुण्यं जीवितपालनम् । द्रोणमेघसुतास्नानवारिदानं द्वतं भज ॥२५॥ प्रसादं कुरु यास्यामो यावन्नोदेति मास्करः । हतोऽरिमथनः शक्त्या दुःखं तिष्ठति लक्ष्मणः ॥२६॥ भरतेन ततोऽवाचि किं वा ग्रहणमम्मसा । स्वयं सा सुभगा तत्र यातु द्रोणवनात्मजा ॥२७॥ मुनीशेन समादिष्टा तस्यैवासौ सुभामिनी । स्त्रीरत्नमुत्तमं सा हि कस्य वाऽन्यस्य युज्यते ॥२८॥ सटकर पड़ रही ॥१३॥ राजाको तुलना प्राप्त करनेवाला कोई धनी मनुष्य अपनी स्त्रीसे कहने लगा कि हे प्रिये ! जागो, क्यों सो रही हो? यह कोई अशोभनीय बात है ॥१४॥ राजभवनमें जो कभी दिखाई नहीं दिया ऐसा प्रकाश दिखाई दे रहा है। रथोंके सवार तैयार खड़े हैं और ये मदोन्मत्त हाथी भी एकत्रित हैं ॥१५॥ नीतिके जानकार पण्डित जनोंको सदा सावधान रहना चाहिए। उठो उठो धनको प्रयत्नपूर्वक छिपा दो ॥१६॥ ये सुवर्ण और चाँदीके घट तथा मणि और रत्नोंके पिटारे तलगृहके भीतर कर दो ॥१७॥ रेशमी वस्त्र आदिसे भरे हुए इन गर्भगृहोंको शीघ्र ही बन्द कर दो तथा और जो दूसरा सामान अस्त-व्यस्त पड़ा है उसे ठीक तरहसे रख दो ॥१८॥ जिसके नेत्र निद्रासे लाल-लाल हो रहे थे ऐसा घबड़ाया हुआ शत्रुघ्न भी घंटाका शब्द करनेवाले हाथी पर शोघ्र ही सवार हो भरतके महलमें जा पहुँचा। शत्रुघ्न, हाथोंमें शस्त्र धारण करनेवाले उत्तमोत्तम मन्त्रियोंसे सहित था, वकुलकी सुगन्धिको छोड़ रहा था तथा उसका वस्त्र चंचल-चंचल हो रहा था। शत्रुघ्न सिवाय दुसरे अन्य राजा भी जो हाथोंमें शस्त्र हुऐ थे, कवचोंसे युक्त थे तथा राजाका हित करनेमें तत्पर थे भरतके महल में जा पहुँचे ॥१९-२१॥ अयोध्याके स्वामी भरत, राजाओंको आज्ञा देते हुए स्वयं युद्धके लिए उद्यत हो गये तब भामण्डल आदिने नमस्कार कर कहा कि ॥२२।। हे देव ! लंकापुरी दूर है, वहां जानेके लिए आप समर्थ नहीं हैं, जिसकी लहरें और शंख क्षोभको प्राप्त हो रहे हैं ऐसा भयंकर समुद्र बीचमें पड़ा है ।।२३।। तो मुझे क्या करना चाहिए, इस प्रकार राजा भरतके कहने पर उन सबने विशल्याका मनोहर चरित कहा ॥२४॥ उन्होंने कहा कि हे नाथ ! द्रोणमेघकी पुत्रीका स्नानजल पापको नष्ट करनेवाला, पवित्र और जीवनकी रक्षा करनेवाला है सो उसे शीघ्र ही दिलाओ ॥२५।। प्रसाद करो, जब तक सूर्य उदित नहीं होता है उसके पहले ही हम चले जायेंगे। शत्रुओंका संहार करनेवाले लक्ष्मण शक्तिसे घायल हो दुःखमें पड़े हैं ॥२६।। तब भरतने कहा कि जलका क्या ले जाना, वह द्रोणमेघकी सुन्दरी पुत्री स्वयं ही वहां जावे अर्थात् उसे ही ले जाओ ॥२७॥ मुनिराजने कहा है कि यह उन्हींकी वल्लभा होगी । यथार्थमें वह उत्तम स्त्रीरत्न है सो अन्य किसके योग्य हो सकती है ? ॥२८॥ १. पाथिवं प्रथमः म.। २. -मुदाहरन् म.। ३. सपण्डितः ज.1 ४. सागरोत्तरे म. । २-५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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