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चतुःषष्टितमं पर्व
४०७ अमिषेकजलं तस्या तदा नेतुमतित्वरम् । यत्नं कुरुत नास्त्यन्या गतिर्लक्ष्मणजीविते ॥११३॥
उपेन्द्रवज्रा इति स्थितानामपि मृत्युमार्गे जनैरशेषैरपि निश्चितानाम् । महात्मनां पुण्यफलोदयेन भवत्युपायो विदितोऽसुदायी ॥११॥
उपजातिः अहो महान्तः परमा जनास्ते येषां महापत्तिसमागतानाम् ।
जनो वदत्युद्भवनाभ्युपायं रवेः समस्तत्त्वनिवेदनेन ॥१५॥ इत्यार्षे श्रीरविषणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे विशल्यापूर्वभवाभिधानं नाम चतुःषष्टितमं पर्व ॥६४।।
प्रकार हे राम! मैंने आपसे कही हैं ॥११२।। इसलिए शीघ्र ही विशल्याका स्नान जल लानेका यत्न करो । लक्ष्मणके जीवित होनेका और दूसरा उपाय नहीं है ।।११३।।
- गौतम स्वामी कहते हैं कि जो इस तरह मृत्युके मार्ग में स्थित हैं तथा समस्त लोग जिनके मरणका निश्चय कर चुके हैं ऐसे महापुरुषोंके पुण्यकर्मके उदयसे जीवन प्रदान करनेवाला कोई न कोई उपाय विदित हो हो जाता है ।।११४॥ अहो ! वे पुरुष अत्यन्त महान् तथा उत्कृष्ट हैं कि महाविपत्तिमें पड़े हुए जिनके लिए सूर्यके समान उज्ज्वल पुरुष यथार्थ तत्त्वका निवेदन कर विपत्तिसे निकलनेका उपाय बतलाते हैं-प्रकट करते हैं ॥११५।।
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराणमें विशल्याके
पूर्वभवका वर्णन करनेवाला चौसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥६॥
१. भवन्त्युपायो म.। २. विहितो -म. ।
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