Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 423
________________ चतुःषष्टितमं पर्व ४०५ बाह्य हस्तशताद्भूमि न गन्तव्यं मयेति च । जग्राह नियमं पूर्व श्रुतं जैनेन्द्रशासने ॥४४॥ नियमावधितोऽतीते षडरात्रेऽथ नभश्चरः । लब्धिदास इति ख्यातो वन्दित्वा मेरुमानजत् ।।८५।। तामपश्यत्ततो नेतुमारेभे तां समुद्यतः । पितुः स्थानं निषिद्धश्च तथा सल्लेखनोक्तितः ॥८६॥ लब्धिदासो लघु प्राप्तः सकाशं चक्रवर्तिनः । समं तेन समायातस्तमुद्देशमसौ गतः ॥८७॥ अथ तामतिरौद्रेण शयुनाऽतिस्थवीयसा । भक्ष्यमाणामसौ दृष्ट्या समाधानप्रदोऽभवत् ॥८॥ प्राप्तसल्लेखनां क्षीणां संवृत्तामपरामिव । तादृशीं तां सुतां दृष्ट्वा चक्री निर्वेदमागतः ॥८९॥ समं पुत्रसहस्राणां द्वाविंशत्या गतस्पृहः । महावैराग्यसंपन्नः श्रमणत्वमुपागतः ॥१०॥ कन्या त्वर्थ क्षुधान प्राप्तेनातिस्थवीयसा । भशिताऽजगरेणागात्सती सानत्कुमारताम् ॥९॥ जानत्याऽपि तया मृत्युं न समुत्सारितः शयुः । माभूत्स्वल्पापि पीडाऽस्य काचिदित्यनुकम्पया ॥१२॥ उत्कार्य खेचरान् संख्ये समस्तांश्च पुनर्वसुः । तदानङ्गशरामिष्टामपश्यन्विरहावनौ ॥१३॥ दुमसेनमुनेः पार्श्वे गृहीतं श्रमणव्रतम् । अत्यन्तदुःखितस्तप्त्वा तपः परमदुश्वरम् ॥९॥ कृत्वा निदानमेतस्याः कृतेऽयं प्राप्तपञ्चतः । सुरो जातश्च्युतश्वायं जातो लक्ष्मणसुन्दरः ॥९५|| प्रभ्रष्टा सुरलोकाच जाताऽनङ्गशराचरी । सुतेयं द्रोणमेघस्य विशल्येति प्रकीर्तिता ।।९६।। सैतस्मिन्नगरे देश भरते वा महागुणा । पूर्वकर्मानुभावेन संजाताऽत्यन्तमुत्तमा ॥९७॥ परमं स्नानवारीदं तेन तस्या महागुणम् । सोपसर्ग कृतं पूर्व तया येन महातपः ॥१८॥ उसने जिन-शासनमें पहले जैसा सुन रखा था वैसा नियम ग्रहण किया कि मैं सौ हाथसे बाहरको भूमिमें नहीं जाऊँगी ।।८४॥ अथानन्तर उसे सल्लेखनाका नियम लिये हुए जब छह रात्रियाँ व्यतीत हो चुकी तब लब्धिदास नामक एक पुरुष मेरु पर्वतकी वन्दना कर लौट रहा था सो उसने उस कन्याको देखा। तदनन्तर जब लब्धिदास उसे पिताके घर ले जानेके लिए उद्यत हुआ तब उसने यह कहकर मना कर दिया कि मैं सल्लेखना धारण कर चुकी हूँ॥८५-८६।। तत्पश्चात् लब्धिदास शीघ्र ही चक्रवर्तीके पास गया और उसके साथ पुनः उस स्थानपर आया ।।८७॥ जब वह आया तब अत्यन्त भयंकर एक बड़ा मोटा अजगर उसे खा रहा था यह देख उसे समाधान करनेमें तत्पर हुआ ॥८८। तदनन्तर जिसने सल्लेखना धारण की थी, और दुर्बलताके कारण जो ऐसी जान पड़ती थी मानो दूसरी ही हो ऐसी उस पुत्रीको देख चक्रवर्ती वैराग्यको प्राप्त हो गया ।।८९।। जिससे उसने सब प्रकारकी इच्छा छोड़ महावैराग्यसे युक्त हो बाईस हजार पुत्रोंके साथ दीक्षा धारण कर ली ।।२०।। भूखसे पीड़ित होने के कारण सामने आये हुए उस अत्यन्त स्थूल अजगरके द्वारा खायी हुई वह कन्या मरकर ईशान स्वर्गमें गयी ॥९१।। यद्यपि वह जानती थी कि इस अजगरसे मेरो मृत्यु होगी तथापि उसने उसे इस दया भावसे कि इसे थोड़ी भी पीड़ा नहीं हो दूर नहीं हटाया था ॥१२॥ तदनन्तर जब पुनर्वसु युद्ध में समस्त विद्याधरोंको परास्त कर आया तब वह अपनी प्रेमपात्र अनंगशराको नहीं देख विरहकी भूमिमें पड़ बहुत दुखी हुआ। अन्तमें उसने द्रुमसेन नामक मुनिराजके समोप दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली और अत्यन्त कठिन तप तप कर इसीका निदान करता हुआ मरा जिससे स्वगंमें देव हुआ और वहांसे च्युत हो यह अत्यन्त सुन्दर लक्ष्मण हुआ है ।।९३-९५।। पहलेकी अनंगशरा देवलोकसे च्युत हो राजा द्रोणमेघकी यह विशल्या नामकी पुत्री हुई है ।।९६॥ महागुणोंको धारण करनेवाली विशल्या इस नगर-देश अथवा भरत क्षेत्रमें पूर्वकर्मों के प्रभावसे अत्यन्त उत्तम हुई ।।९७।। यतश्च उसने पूर्व भवमें उत्सर्ग सहित महातप किया था १. अजगरेण । २. चाथ म. । ३. प्राप्तमरणः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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