________________
पपपुराणे ततो द्रोणघनाबस्य सकाशं प्रेषितो निजः । स चापि कुपितो योर्बु मानस्तम्भसमुद्यतः ॥२९॥ संक्षुब्धास्तनयास्तस्य सन्नद्धाः सचिवैः सह । परमाकुलता प्राप्तां महादुर्लडितक्रियाः ॥३०॥ भरतस्य ततो मात्रा स्वयं गत्वा महादरम् । प्रतिबोधमुपानीतः स तेन तनयामदात् ॥३१॥ सा मामण्डलचन्द्रेण विमानशिखरं निजम् । आरोपिता महारथ्यं कान्तिपूरितदिङ्मुखा ॥३२॥ सहस्रमधिकं चान्यकन्यानां सुमनोहरम् । राजगोत्रप्रसूतानां कृतं गामि समं तया ॥३३॥ ततो निमेषमात्रेण प्राप्ता संग्राममेदिनीम् । अादिमिः कृताभ्यर्हा सर्वैः खेचरपुङ्गवैः ॥३४॥ अवतीर्णा विमानानात्ततः कन्याभिरावृता । चारुचामरसंघातैः वीज्यमाना शनैः सुखम् ॥३५॥ पश्यन्ती तुरगान् द्वारे मत्तांश्च वरवारणान् । महत्तरैः कृतानुज्ञा पुण्डरीकनिमानना ॥३६।। यथा यथा महाभाग्या विशल्या सोपसर्पति । तथा तथामजसौम्यं सुमित्रातनयोऽमृतम् ॥३७॥ प्रभापरिकरी शक्तिस्ततो लक्ष्मणवक्षसः । चकिता दुष्टयोषेव कामुकात् परिनिःसृता ॥३८॥ स्फुरस्फुलिङ्गज्वाला च लङ्घयन्ती दुतं नमः । उत्पत्य वायुपुत्रेण गृहीता वेगशालिना ॥३९।। दिव्यस्त्रीरूपसंपन्ना ततः संगतपाणिका । सा जगाद हनूमन्तं संभ्रान्ता बद्धवेपथुः ॥४०॥ प्रसीद नाथ मुञ्चस्व न मे दोषोऽस्ति कश्चन । कुत्सितास्मद्विधानां हि प्रेष्याणां स्थितिरीदशी ॥४॥ अमोघविजया नाम प्रज्ञप्तेरहकं स्वसा । विद्या लोकनये ख्याता रावणेन प्रसाधिता ॥४२॥ कैलासपर्वते पूर्व बालौ प्रतिमया स्थिते । सन्निधौ जिनबिम्बानां गायता भावितात्मना ॥४३॥
तदनन्तर भरतने द्रोणमेघके पास अपना आदमी भेजा सो मान दमन करनेमें उद्यत वह द्रोणमेघ भी युद्ध करनेके लिए कुपित हुआ ॥२९॥ प्रचण्ड बलको धारण करनेवाले उसके जो पुत्र थे वे भी परम आकुलताको प्राप्त हो क्षुभित हो उठे तथा युद्ध करनेके लिए मन्त्रियोंके साथ साथ तैयार हो गये ॥३०॥ तब भरतकी माता केकयीने स्वयं जाकर उसे बड़े आदरसे समझाया जिससे उसने अपनी पुत्री दे दी ॥३१॥ कान्तिसे दिशाओंको पूर्ण करनेवाली उस कन्याको भामण्डलने अपने शीघ्रगामी विमानके अग्रभाग पर बैठाया ॥३२॥ इसके सिवाय राजकुलमें उत्पन्न हुई एक हजारसे भी अधिक दूसरी मनोहर कन्याएँ विशल्याके साथ भेजीं ॥३३।। तदनन्तर निमेष मात्रमें वह यद्धभूमिमें पहुँच गयी सो समस्त विद्याधरोंने अर्घ्य आदिसे उसका योग्य सन्मान किया । तत्पश्चात जो कन्याओंसे घिरी थी और जिसपर सुन्दर चमरोंके समूह धीरे-धीरे सुख पूर्वक झल जा रहे थे ऐसी विशल्या विमानके अग्रभागसे नीचे उतरी ॥३५॥ द्वार पर खड़े घोड़ों और मदोन्मत्त हाथियोंको देखती हुई वह आगे बढ़ी। बड़े-बड़े लोग उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर थे तथा कमलके समान उसका मुख था ॥३६॥ महाभाग्यशालिनी विशल्या जैसे-जैसे पास आती जाती थी वैसे-वैसे लक्ष्मण आश्चर्यकारी सुखदशाको प्राप्त होते जाते थे ॥३७॥
तदनन्तर जिस प्रकार दुष्ट स्त्री चकित हो पतिके घरसे निकल जाती है उसी प्रकार कान्तिके मण्डलको धारण करनेवाली शक्ति लक्ष्मणके वक्षःस्थलसे बाहर निकल गयी ॥३८॥ जिससे तिलगे और ज्वालाएं निकल रही थीं ऐसी वह शक्ति, शीघ्र ही आकाशको लांघती हुई जाने लगी सो वेगशाली हनुमान्ने उछलकर उसे पकड़ लिया ॥३९॥ तब वह दिव्यस्त्रीके रूप में परिणत हो हाथ जोड़कर हनुमान्से बोली। उस समय वह घबड़ायी हुई थी तथा उसके शरीरसे कंपकंपी छूट रही थी ॥४०॥ उसने कहा कि हे नाथ ! प्रसन्न होओ, मुझे छोड़ो, इसमें मेरा दोष नहीं है, हमारे जैसे सेवकोंकी ऐसी ही निन्द्य दशा है ॥४१॥ मैं तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध अमोघ विजया नामकी विद्या हूँ, प्रज्ञप्तिकी बहन हूँ और रावणने मुझे सिद्ध किया है ।।४२॥ कैलास पर्वत पर पहले जब
१. सा तेन ज.। २. कृताभ्यर्चाः म. ! ३. निभातनं ज.। ४. प्रभाकरकरा म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org: