Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 420
________________ ४०२ पद्मपुराणे न केवलमहं तेन वारिणाऽन्तःपुरं मम । पुरं देशश्च संजातं सर्वरोगविवर्जितम् ॥४०॥ कर्ता रोगसहस्राणां वायुरत्यन्तदुःसहः । प्रणष्टो वारिणा तेन मर्मसंभेदकोविदः ॥४१॥ मयैवं सततं पृष्टो मामैतदुदकं कुतः । येनाऽऽश्चर्यमिदं शीघ्र कृतं रोगविनाशनम् ॥४२॥ सोऽवोचच्छु यतां राजन्नस्ति मे गुणशालिनी । विशल्या नाम दुहिता सर्वविज्ञानकोविदा ॥४३॥ यस्यां गर्भप्रपन्तायामनेकव्याधिपीडिता । देवी ममोपकाराऽभूत्सर्वरोगविवर्जिता ॥१४॥ जिनेन्द्र शासनासत्ता नित्यं पूजासमुद्यता । शेषेव सर्वबन्धूनां पूजनीया मनोहरा ॥४५॥ स्नानोदकमिदं तस्या महासौरभ्यसंगतम् । कुरुते सर्वरोगाणां तत्क्षणेन विनाशनम् ॥१६॥ तदस्तदहमाकर्य द्रोणमेघस्य भाषितम् । परं विस्मयमापन्नः संपदा तामपूजयम् ।।४।। नगरीतश्च निष्क्रम्य नाम्ना सत्वहितं मुनिम् । गणेश्वरं समप्राक्षं प्रणम्य विनयान्वितः ॥४८॥ ततः खेचरपृष्टोऽसौ समाख्यासीन्महायतिः । वैशल्यं चरितं दिव्यं चतुर्ज्ञानी सुवरसलः ॥४९॥ विदेहे पौण्डरीकाख्ये विषये स्वर्गसंनिभे । चक्री त्रिभुवनानन्दः पुरे चक्रधरेऽभवत् ।।५०॥ नाम्नाऽनङ्गशरा तस्य तनया 'गुणमण्डना । अपूर्वा कर्मणां सृष्टिावण्यप्लवकारिणी ॥५॥ तां प्रतिष्ठपुराधीशः सामन्तोऽस्य पुनर्वसुः । दुर्धीराहरदारोप्य विमानं स्मरचोदितः ॥५२॥ क्रुद्धाच्चक्रधरादाज्ञां संप्राप्यामुष्य किङ्करैः । चिरं कृतवतो युद्ध विमानं चूर्णितं भृशम् ॥५३॥ चूय॑मानविमानेन मुक्का तेनाकुलात्मना । पपात नमसः कान्तिरिव चन्द्रस्य शारदी ।।५४।। दी ॥३९॥ उस जलसे न केवल मैं ही नीरोग हुआ किन्तु मेरा अन्तःपुर, नगर और समस्त देश रोगरहित हो गया ॥४०॥ हजारों रोगोंको उत्पन्न करनेवाली, अत्यन्त दुःसह, एवं मर्मघात करने में निपूण दुषित वायु ही उस जलसे नष्ट हो गयी ॥४१।। मैंने राजा द्रोणमेघसे बार-बार पूछा कि हे माम! यह जल कहाँसे प्राप्त हआ है जिसने शीघ्र ही रोगोंको नष्ट करनेवाला यह आश्चर्य उत्पन्न किया है ।।४२।। इसके उत्तरमें द्रोणमेघने कहा कि हे राजन् ! सुनिए, मेरी गुणोंसे सुशोभित तथा सब प्रकारके विज्ञानमें निपुण विशल्या नामकी पुत्री है ॥४३॥ जिसके गर्भमें आते ही अनेक रोगोंसे पीड़ित मेरी स्त्री सर्व रोगोंसे रहित हो मेरा उपकार करनेवाली हुई थी ॥४४॥ वह जिन-शासनमें आसक्त है, निरन्तर पूजा करने में तत्पर रहती है, मनोहारिणी है और शेषाक्षतके समान सर्व बन्धु जनोंकी पूज्या है ॥४५॥ यह महासुगन्धिसे सहित उसीका स्नान-जल है जो कि क्षण-भरमें सब रोगोंको नाश कर देता है ।।४६॥ तदनन्तर द्रोणमेघके वह वचन सुन मैं परम आश्चर्यको प्राप्त हआ और बड़े वैभवसे मेने उस पुत्रीको पूजा को ॥४७॥ नगरासे निकलकर जब वापस आ रहा था तब सत्यहित नामक मुनिराज जो कि मुनिसंघके स्वामी थे वे मिले। मैंने विनयपूर्वक प्रणाम कर उनसे विशल्याका चरित्र पूछा ॥४८॥ राजा भरत विद्याधरसे कहते हैं कि हे विद्याधर! तदनन्तर मेरे पूछने पर चार ज्ञानके धारी, महास्नेही मुनिराज विशल्याका दिव्य चरित्र इस प्रकार कहने लगे कि-॥४९।।। विदेह क्षेत्रमें स्वर्गके समान पुण्डरीक नामक देश है। उसके चक्रधर नामक नगरमें त्रिभुवनानन्द नामका चक्रवर्ती रहता था।॥५०॥ उसकी अनंगशरा नामको एक कन्या थी जो गुणरूपी आभूषणोंसे सहित थी, कर्मोकी अपूर्व सृष्टि थी और सौन्दर्यका प्रवाह बहानेवाली थी॥५१॥ चक्रवर्ती त्रिभुवनानन्दका एक पुनर्वसु नामका सामन्त था जो कि प्रतिष्ठपुर नगरका स्वामी था। कामसे प्रेरित हो उस दुर्बुद्धिने विमानपर चढ़ाकर उस कन्याका अपहरण किया ॥५ भरे चक्रवर्तीको आज्ञा पाकर सेवकोंने उसका पीछा किया और बहुत काल तक युद्ध कर उराके विमानको अत्यधिक चूर कर डाला ॥५३।। तदनन्तर जिसका विमान चूर-चूर किया जा रहा था १. मापन्नाः म. । २. विजये म., ज. । ३. चक्रधरोऽभवत् म. । ४. गुणमण्डला म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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