Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ त्रिषष्टितम पर्व ३९७ हे सुग्रीव सुहृत्त्वं ते दर्शितं खेचराधिप । व्रजाऽधुना निजं देशं भामण्डल भवानपि ।।१५।। जीविताशां परित्यज्य दयितां जानकीमिव । ज्वलनं श्वः प्रवेष्टास्मि समं भ्रात्रा विसंशयम् ॥१६॥ विभीषण न मे शोकस्तथा सीताऽनुजोद्भवः । यथा निरुपकारित्वं मम संबाधते त्वयि ॥१७।। उत्तमा उपकुर्वन्ति पूर्व पश्चात्तु मध्यमाः । पश्चादपि न ये तेषामधमत्वं हतात्मनाम् ॥१८॥ कृतपूर्वोपकारस्य साधोबन्धुविरोधिनः । यत्ते नोपकृतं किंचित्तेन दोतरामहम् ॥१९॥ भो भामण्डलसुग्रीवी चिता रचयतां द्रुतम् । परलोकं गमिष्यामि कुरुतं युक्तमात्मनः ॥२०॥ ततो लक्ष्मीधरं स्प्रष्टुमिच्छन्तं रघुनन्दनम् । अवारयन्महाबुद्धिर्जाम्बूनदमहत्तरः ॥२१॥ मा स्वाक्षीलक्ष्मणं देव दिव्यास्त्रपरिमूञ्छितम् । प्रमादो जायते ह्येवं प्रायो हि स्थितिरीदृशी ॥२२॥ प्रपद्यस्व च धीरत्वं कातरत्वं परित्यज । भवन्तीह प्रतीकाराः प्रायो विपदमीयुषाम् ॥२३॥ प्रतीकारो विलापोऽत्र नानुदात्तजनोचितः । परमार्थानुसारेण क्रियतां धीरमानसम् ॥२४॥ उपायः सर्वथा कश्चिदिह देव भविष्यति । जीविष्यति तव भ्राता ननु नारायणो ह्ययम् ॥२५॥ ततो विषादिनः सर्वे परं विद्याधराधिपाः । उपायचिन्तनासक्ताश्चरित्यन्तरात्मनि ॥२६॥ दिव्या शक्तिरियं शक्या न निराकत्त मौषधैः । उदगते ज्योतिषामीशे दुःखं जीवति लक्ष्मणः ॥२७॥ अथोत्सार्य कबन्धादीनिमिषार्द्धन सा मही । किङ्करैर्विहितोत्तुङ्गदूष्यप्राकारमण्डपा ॥२८॥ हे विद्याधरोंके राजा सुग्रीव ! तुमने अपनी मित्रता दिखायी। अब अपने देश जाओ। इसी तरह हे भामण्डल ! तुम भी अपने देश जाओ ।।१५।। इसमें संशय नहीं कि मैं प्रिया जानकीके समान जीवनको आशा छोड़ कल भाईके साथ अग्निमें प्रवेश करूँगा ।।१६।। हे विभीषण ! मुझे सीता तथा छोटे भाईके वियोगसे उत्पन्न हुआ शोक उस प्रकार पीड़ा नहीं पहुँचा रहा है जिस प्रकार कि तुम्हारा कुछ उपकार नहीं कर सकना ॥१७|| उत्तम मनुष्य कार्यके पूर्व तथा मध्यम मनुष्य कार्यके पश्चात् उपकार करते हैं परन्तु जो कार्यके पीछे भी उपकार नहीं करते हैं उन दुष्टोंमें नीचताका ही निवास समझना चाहिए ॥१८॥ हे विभीषण ! तू साधु पुरुष है। तूने मेरा पहले उपकार किया और मेरे पीछे बन्धुसे विरोध किया है फिर भी मैं तेरा कुछ भी उपकार नहीं कर सका इससे मन ही मन जल रहा हूँ ॥१९।। हे भामण्डल और सुग्रीव ! शीघ्र ही चिता बनाओ। मैं परलोक जाऊँगा, आप दोनों अपने योग्य कार्य करो। जिसमें तुम्हारा कल्याण हो सो करो ॥२०॥ तदनन्तर रामने लक्ष्मणके स्पर्श करनेकी इच्छा की सो उन्हें महाबुद्धिमान् जाम्बूनदने मना किया ।।२१।। उसने कहा कि हे देव ! दिव्य अस्त्रसे मूच्छित लक्ष्मणको मत छुओ क्योंकि ऐसा करनेसे प्रायः प्रमाद हो जाता है। इन दिव्य अस्त्रोंकी ऐसी ही स्थिति है ।।२२।। आप धीरताको प्राप्त होओ, कातरता जोड़ो, विपत्तिमें पड़े हुए लोगोंके प्रतीकार इस संसारमें अधिकांश विद्यमान हैं ।।२३।। क्षुद्र मनुष्योंके योग्य विलाप करना इसका प्रतीकार नहीं है, हृदयको यथार्थमें धैर्ययुक्त किया जाये ||२४|| हे देव ! इसका कोई न कोई उपाय अवश्य होगा और तुम्हारा भाई जीवित होगा क्योंकि यह नारायण है, नारायणका असमयमें मरण नहीं होता ॥२५।। तदनन्तर विषादसे भरे सब विद्याधर राजा उपायके चिन्तनमें तत्पर हो मनमें इस प्रकार विचार करने लगे कि यह दिव्य शक्ति औषधियोंके द्वारा दूर नहीं की जा सकती और सूर्योदय होनेपर लक्ष्मण बड़ी कठिनाईसे जीवित रह सकेंगे अर्थात् सूर्योदयके पूर्व इसका प्रतीकार नहीं किया गया तो जीवित रहना कठिन हो जायेगा ॥२६-२७॥ तदनन्तर किंकरोंने आधे निमेषमें ही शिररहित धड़ आदिको हटाकर उस युद्धभूमिको शुद्ध किया और वहाँ कपड़ेके ऊँचे-ऊँचे डेरे-कनातें तथा मण्डप आदि खड़े कर दिये ।।२८।। १. सूर्ये । २. दृश्य म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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