Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 408
________________ ३९० पपपुराणे विनिशम्य वचस्तस्य तरुणक्रोधसंगतः । निशातं बाणमुद्धस्य समधावत रावणः ॥२८॥ रथाश्ववारणारूढाः स्वामितोषे हि तत्पराः । अन्येऽपि पार्थिवा लग्ना रणे सुमटदारुणे ॥२९॥ आयातोऽमिमुखं तस्य राक्षसेन्द्रस्य रंहसा । अष्टमीचन्द्रवक्रेण ध्वज भ्रान्तेषुणाच्छिनत् ॥३०॥ तेनापि तस्य 'संरम्मसंभाराकान्तचेतसा । धनुर्द्विधाकृतं क्षिप्त्वा सायकं निशिताननम् ॥३१॥ ततोऽपरमुपादाय चापमाशु विभीषणः । द्विधाकरोद्धनुस्तस्य प्रतिकारविचक्षणः ॥३२॥ एवं तयोर्महायुद्धे प्रवृत्ते वीरसंक्षये । जनकस्य परं भक्तः शक्रजियो मुद्ययौ ॥३३॥ लक्ष्मोधरेण रुद्धोऽसौ पर्वतेनेव सागरः । पदमनेत्रेण पदमेन मानुकर्णोऽग्रतः कृतः ॥३४।। ययौ सिंहकटिं नीलो युद्धशम्भु तथा नलः । स्वयंभु दुर्मतिः क्रुन्दो दुर्मषोऽपि घटोदरम् ॥३५।। दुष्टः शक्राशनि कालिस्तथा चन्द्रनखं नृपम् । स्कन्दो मिन्नाअनं विघ्नं विराधितनराधिपः ॥३६॥ ख्यातं मयमहादैत्यमङ्गदो भासुराङ्गदः । कुम्भकर्णसुतं कुम्भं समीरणसमुद्भवः ॥३७॥ किष्किन्धेशः समाल्याख्यं केतं जनकनन्दनः । कामं दृढरथः क्षब्धः क्षोभणाभिख्यमूर्जितम् ॥३८॥ अन्येऽप्येवं महायोधा यथायोग्यं परस्परम् । आरेभिरे रणं कतु माहानमुखराननाः ॥३९।। गृहाण प्रहरागच्छ जहि व्यापादयोगिरः । छिन्धि मिन्धि क्षिपोत्तिष्ठ तिष्ठ दारय धारय ।॥४०॥ बधान स्फोटयाकर्ष मुञ्च चूर्णय नाशय । सहस्व दत्स्व निःसर्प संधत्स्वोच्छय कल्पय ॥४१॥ किं भीतोऽसि न हन्मि त्वां धिकत्वां कातरको भवान् । कस्त्वं बिभेसि नष्टोऽसि मा कम्पिष्टा क गम्यते॥४२॥ भी इस बलवान मोहका तिरना अत्यन्त कठिन है ॥२७॥ तदनन्तर विभीषणके वचन सुन तीव्र क्रोधसे युक्त हुआ रावण तीक्ष्ण बाण चढ़ाकर दौड़ा ॥२८॥ स्वामीको सन्तुष्ट करने में तत्पर रहनेवाले, रथों, घोड़ों और हाथियोंपर बैठे हुए अन्य राजा लोग भी योद्धाओंको भय उत्पन्न करनेवाले युद्ध में लग गये ।।२९॥ तदनन्तर बड़े वेगसे सम्मुख जाकर विभीषणने अष्टमी के चन्द्रके समान कुटिल घूमनेवाले बाणसे रावणकी ध्वजा छेद डाली ॥३०॥ और क्रोधके भारसे जिसका चित्त व्याप्त था ऐसे रावणने भी एक तीक्ष्णमुख बाण चलाकर विभीषणके धनुषके दो टुकड़े कर दिये ॥३१॥ पश्चात् प्रतिकार करने में निपुण विभीषणने शीघ्र ही दूसरा धनुष लेकर रावणके धनुषके दो टुकड़े कर दिये ॥३२।। इस प्रकार जब रावण और विभीषणके बीच अनेक वीरोंका क्षय करनेवाला महायुद्ध चल रहा था तब पिताका परमभक्त इन्द्रजित् युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ॥३३।। सो जिस प्रकार पर्वत समुद्रको रोकता है उसी प्रकार लक्ष्मणने उसे रोका और कमललोचन रामने भानुकर्णको अपने आगे किया अर्थात् उससे युद्ध करना प्रारम्भ किया ॥३४|| नील, सिंहकटि (सिंहजघन) के सम्मुख गया, नलने युद्ध शम्भुका, दुर्मतिने स्वयम्भुका, क्रोधसे भरे दुर्मषंने कुम्भोदरका, दुष्टने इन्द्रवज्रका, कान्तिने चन्द्रनखका, स्कन्धने भिन्नांजनका, विराधित राजाने विघ्नका, देदीप्यमान केयूरके धारक अंगदने प्रसिद्ध मय नामक महादैत्यका, हनुमान्ने कुम्भकर्णके पुत्र कुम्भका, सुग्रीवने सुमालीका, भामण्डलने केतुका, दृढरथने कामका और क्षुब्धने क्षोभण नामक बलवान् सामन्तका सामना किया ।।३५--३८। इनके सिवाय बुलानेके शब्दसे जिनके मुख शब्दायमान हो रहे थे ऐसे अन्य महायोधाओंने भी परस्पर यथायोग्य युद्ध करना प्रारम्भ किया ॥३९|| उस समय योद्धाओंमें परस्पर इस प्रकारके शब्द हो रहे थे कोई किसीसे कहता था कि लो, इसके उत्तर में दूसरा कहता था कि मारो, आओ, मारो, जानसे मार डालो, छेदो, भेदो, फेंक दो, उठो, बैठो, खड़े रहो, विदारण करो और धारण करो ।। ४०|| बाँधो, फोड़ डालो, घसीटो, छोड़ो, चूर-चूर कर डालो, छोड़ो, नष्ट करो, सहन करो, देओ, पीछे हटो, सन्धि करो, उन्नत होओ, समर्थ बनो। तू क्यों डर रहा है ? मैं तुझे नहीं मारता, तुझे धिक्कार है, तू बड़ा कातर है, तुझे १. संरम्भं संभाराक्रान्तसाधनम् म. । २. किष्किन्धेशं म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480