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द्वाषष्टितमं प
अयं स वर्तते कालः शूराशूरविचारकः । भुज्यतेऽन्नं यथा मृष्टं न तथा युध्यते रणे ॥४३॥ गर्जितैरिति धीराणां तूर्यनादैस्तथोन्नतैः । नर्दन्तीव दिशो मत्ताः क्षतजातान्धकारिताः ॥४४॥ चक्रशक्तिगदायष्टिकन काष्र्ष्टिघनादिभिः । दंष्ट्रालमिव संजातं गगनं भीषणं परम् ॥ ४५ ॥ रक्ताशोकवनं किं तत् किं वा किंशुककाननम् । परिभेद्र दुमारण्यभुत जातं क्षतं बलम् ॥४६॥ कश्चिद्विघटितं दृष्ट्वा कङ्कटं छिन्नबन्धनम् । संधत्ते त्वरितं भूयः स्नेहं साधुजनो यथा ॥४७॥ कश्चित्संघार्य दन्तायैः खड्गं परिकरं दृढम् । बध्वा दीप्रः पुनर्योद्धुं श्रममुक्तः प्रवर्तते ॥४८॥ मत्तवारणदन्ताग्रक्षतवक्षस्थलोऽपरः । चलत्कर्णसमुद्धू तैवजितः कर्णचामरैः ॥४९॥ उत्तीर्णस्वामिकर्तव्यो निराकुलमतिः परम् । दन्तोत्संगे ततः शिश्ये संप्रसार्य भुजद्वयम् ||५० || धातुपर्वतसंकाशाः केचित् क्षतजनिर्झराः । मुमुचुः शीकरासारसेकबोधित मूच्छिताम् ॥५१॥ पर्यस्ता भूतले केचिद्दष्टौष्ठाः शस्त्रपाणयः । कुञ्चितभ्रू दुरीक्ष्यास्या वीरा मुञ्चन्ति जीवितम् ॥ ५२ ॥ उपसंहृत्य संरम्भं व्यक्तशस्त्रास्तथापरे । मुञ्चन्ति जीवितं धीरा ध्यायन्तः परमाक्षरम् ॥५३॥ विषाणकोटिसंसक्तपाणयः केचिदुत्कटाः । आन्दोलनं गजेन्द्राणामग्रतः समुपासिरे || ५४।। रक्तच्छटां'विमुञ्चन्तश्चञ्चलाः शस्त्रपाणयः । कवन्धा नर्त्तनं चक्रुः शतशोऽतिभयानकम् ॥५५॥
केचिदत्रविनिर्मुक्ता जर्जरीभूतकङ्कटाः । प्रविष्टाः सलिलं क्लिष्टा जीविताशापराङ्मुखाः ।।५६।।
धिक्कार है, तू क्यों कम्पित हुआ जा रहा है ? क्या तू भूल गया है ? कम्पित मत हो, तू अकेला कहाँ जायेगा ? ।।४१-४२ ॥ यह वह समय है जिसमें शूर और कायरका विचार किया जाता है । जैसा मीठा अन्न खाया है वैसा रणमें युद्ध नहीं कर रहे हो ||४३|
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इस प्रकार धीर-वीरोंकी गर्जना और तुरहीके उन्नत शब्दोंसे दिशाएं ऐसी जान पड़ती थीं मानो रुधिरकी वर्षासे अन्धकारयुक्त तथा पागल हो चिल्ला ही रही हों ||४४|| चक्र, शक्ति, गा, ष्टि, कनक, आष्ट और घन आदि शस्त्रोंसे आकाश उस प्रकार अत्यन्त भयंकर हो गया मानो सबको निगलने के लिए दांढ़े ही धारण कर रहा हो ||४५ || खून से लथपथ घायल सेनाको देखकर ऐसा सन्देह होता था कि क्या यह अशोकका लाल वन है ? या पलाशका कानन है, या पारिभद्र वृक्षोंका वन है ? || ४६ || किसीका कवच टूट गया तथा उसके बन्धन खुल गये, इसलिए उसने शीघ्र ही दूसरा कवच उस प्रकार धारण किया जिस प्रकार कि साधु पुरुष एक बार स्नेहके टूट जानेपर उसे शीघ्र ही पुनः धारण कर लेते हैं ||४७|| कोई तेजस्वी योद्धा दाँतोंके अग्रभाग से तलवार दबा तथा हाथोंसे कमर कसकर श्रमरहित हो फिरसे युद्ध करनेके लिए तैयार हो गया ||४८ || मदोन्मत्त हाथीके दन्ताग्रसे जिसका वक्षःस्थल घायल हो गया था ऐसा कोई योद्धा हाथी के चंचल कानोंसे ऊपर उठे हुए कर्णचामरोंसे वीजित हो रहा था || ४९|| जिसने स्वामीका कर्तव्य पूरा किया था ऐसा कोई एक योद्धा निराकुल चित्त हो दोनों हाथ पसारकर हाथी के दांतों के बीच सो रहा था || ५०॥ जिनसे खूनके निर्झर झर रहे थे तथा जो गेरूके पर्वतके समान जान पड़ते थे ऐसे कितने हो योद्धाओंने जलकणोंकी वर्षाके सिचनसे सचेत हो मूर्च्छा छोड़ी थी ||११|| जो ओठ डँस रहे थे, हाथोंमें शस्त्र लिये थे और टेढ़ी भौंहोंसे जिनके मुख भयंकर दिख रहे थे ऐसे कितने ही योद्धा पृथिवीपर पड़कर प्राण छोड़ रहे थे || ५२ || कितने ही धीर-वीर योद्धा ऐसे भी थे जो क्रोध का संकोच तथा शस्त्रोंका त्याग कर परब्रह्मका ध्यान करते हुए प्राण छोड़ रहे थे ॥५३॥ कितने ही प्रचण्ड वीर खीसोंके अग्रभागको हाथोंसे पकड़कर हाथियोंके आगे झूला झूल रहे थे ॥५४॥ जो रखतकी छटा छोड़ रहे थे तथा हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए थे, ऐसे सैकड़ उछलते कबन्ध - शिररहित धड़ अत्यन्त भयंकर नृत्य कर रहे थे || ५५ || जिनके कवच जर्जर है १. भुञ्जतेऽन्नं म. । २. तदुन्नतैः म । ३. पारिभद्रकुमाराणां म । ४. समुद्भूतैः म । ५. विमुञ्चन्ति म ।
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