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द्वाषष्टितम पर्व
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मन्दोदरीसुतोऽप्येष बद्धो नारायणाज्ञया । विराधितेन याने स्वे स्थापितः कान्तविग्रहः ॥७१॥ तावद्रणमुखेऽमाणीद् दशवक्त्रो विभीषणम् । संक्रुद्धोऽमिमुखीभूतं चिरं 'सोढारणक्रियम् ॥७२॥ प्रहारमिममेकं मे प्रतीच्छ यदि मन्यसे । सत्यं पुरुषमात्मानं रणकण्डूप्रचण्डकम् ॥७३॥ इत्युक्त्वा विस्फुरत्पिङ्गस्फुलिङ्गालिङ्गिताम्बरम् । शूलं चिक्षेप लुप्तोऽसौ लक्ष्मणेनान्तरे शरैः॥७॥ तं भस्मीकृतमालोक्य शूलमत्युग्रमायुधम् । अधिकं रावणः क्रुद्धः शक्ति जग्राह दारुणाम् ॥७५॥ यावत्पश्यति संजातमग्रतो गरुडध्वजम् । प्रौढेन्दीवरसंकाशं भासुरं पुरुषोत्तमम् ।।६।। प्रलयाम्भोदसंभारगंभीरोदारनिस्वनः । विंशत्यर्द्धमुखोऽवोचत् तमेवं ताडयन्निव ॥७७॥ अन्यस्यैव मया शस्त्रमुद्यतं वधकारणम् । यदि तत्कोऽधिकारस्ते स्थातुमासंनतो मम ॥७॥ अभिवाञ्छसि मत्तुं वा यदि दुर्मत लक्ष्मण । प्रतीच्छेमं प्रहारं मे तिष्ठ प्रगुणविग्रहः ॥७९॥ विभीषणं समत्सार्य सोऽपि कृच्छण मानवान् । दशास्यममिदुराव चिरं संग्रामखेदितम् ॥८॥ निःसर्पत्तारकाकारस्फुलिङ्गनिकरां ततः । चिक्षेप रावणः शक्ति कोपसंमारसंगतः ॥८॥ वक्षस्तस्य तया भिग्नं महाशैलतटोपमम् । अमोघक्षेपया शक्त्या दिव्ययात्यन्तदीप्रया ॥२॥ लक्ष्मणोसि सा सक्ता मासुरागमनोहरा । परमप्रेमसंबद्धा शोभते स्म वधूरिव ।।८३॥ गाढप्रहारदुःखातः स परायत्तविग्रहः । महीतलं परिप्राप्तो गिरिर्वज्राहतो यथा ॥४॥
पाशसे वेष्टित रहता है, उसी प्रकार भानुकणं भी नागपाशसे वेष्टित हो गया। तदनन्तर रामकी आज्ञा पाकर भामण्डलने उसे अपने रथपर डाल लिया ॥७०।। उधर जिसका शरीर बेचैन हो रहा था ऐसे नागपाशसे बँधे हुए इन्द्रजित्को भी लक्ष्मणको आज्ञासे विराधितने अपने रथपर रख लिया ॥७१||
उसी समय रणके मैदानमें क्रोधसे भरे रावणने, चिरकाल तक रणक्रियाको सहन करनेवाले विभीषणने कहा कि ॥७२॥ यदि तू अपने आपको सचमुच ही रणको खाजसे प्रचण्ड पुरुष मानता है तो मेरे इस एक प्रहारको झेल ||७३|| इतना कहकर उसने निकलते हुए पीले तिलगोंसे आकाशको व्याप्त करनेवाला शूल चलाया, सो लक्ष्मणने उसे अपने बाणोंसे बीच में ही समाप्त कर दिया ॥७४॥ उस अत्यन्त भयंकर शूल नामक शस्त्रको भस्मीकृत देख रावणने अत्यन्त कुपित हो भयानक शक्ति उठायी ।।७५।। रावण शक्ति उठाकर ज्यों ही सामने देखता है तो उसे आगे खड़े हुए, तरुण नील कमलके समान श्याम, देदीप्यमान पुरुषोत्तम, लक्ष्मण दिखाई दिये ॥७६।। लक्ष्मणको देख प्रलयकालीन मेघसमूहके समान गम्भीर शब्द करनेवाला रावण ताड़न करते हुए के समान इस प्रकार बोला ।।७७॥ कि जब मैंने दूसरेका ही वध करनेके लिए शस्त्र उठाया है तब तुझे मेरे निकट खड़े होनेका क्या अधिकार है ? |७८।। अथवा रे मूर्ख लक्ष्मण ! यदि तू मरना ही चाहता है तो सीधा खड़ा हो और मेरा यह प्रहार झेल ॥७९|| यह सुन मानी लक्ष्मण भी कठिनाईसे विभीषणको अलग कर जो चिरकाल तक युद्ध करनेसे खेदखिन्न हो गया था ऐसे रावणके सम्मुख दौड़ा ।।८०||
तदनन्तर क्राधके भारसे भरे रावणने जिससे ताराओंके समान तिलगोंका समूह निकल रहा था ऐसी शक्ति चलायी और जिसका चलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता तथा जो अत्यन्त
मान थी ऐसी उस शक्तिसे महापर्वतके तटके समान लक्ष्मणका वक्षःस्थल खण्डित हो गया ॥८१-८२।। लक्ष्मणके वक्षस्थलपर लगी देदीप्यमान आकृतिसे मनोहर वह शक्ति, परम प्रेमसे लिपटी स्त्रीके समान सुशोभित हो रही थी ।८३।। जो गाढ़ प्रहारजन्य दुःखसे दुःखी थे तथा
१. सोढा रणक्रियम् म. ।
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