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पद्मपुराणे
ईदशे समरे जाते लोकसंत्रासकारिणि । परस्परसमुद्भतमहाभटपरिक्षये ॥५७।। महेन्द्र जिदसौ बाणलक्ष्मीमन्तं सिताननैः । लग्नश्छादयितुं वीरस्तथा तमपि लक्ष्मणः ॥५॥ महातामसशस्त्रं च भीमं शक्रजिदक्षिपत् । विनाशं मानवीयेन तदस्त्रेणानयद्रिपुः ।।५९॥ तमुप्रैः शक्रजिद्भ्यः शरैराशीविषात्मकैः । आरब्धो वेष्टितुं क्रुद्धः सरथं शस्त्रवाहनम् ।।६०॥ वैनतेयास्त्रयोगेन नागास्त्रं स निराकरोत् । पूर्वोपात्तं यथा पापजालं योगी महातपाः ॥६॥ ततोऽमात्यगणान्तस्थं हस्तिवृन्दस्थलावृतम् । विरथं लक्ष्मणश्चक्रे दशवक्त्रसमुद्भवम् ॥६२॥ पालयन् स निज सैन्यं वचसा कर्मणा तथा । प्रायुङ्क्तास्त्रं महाध्धान्तपिहितारिदशास्यकम् ॥६३॥ विद्यया तपनास्त्रं च हत्वा तस्य विचिन्तितम् । चिक्षेपेच्छाघृताकारानाशीमुखशिलीमुखान् ॥६॥ संग्रामाभिमुखो नागैः कुटिलं. व्याप्तविग्रहः । इन्द्रजित्पतितो भूमौ पुरा भामण्डलो यथा ॥६५।। पदमेनाऽऽदित्यकोऽपि सुयुद्धे विरथीकृतः। आदित्यास्त्र शनैहत्वा नागास्त्रं संप्रयुज्य च ॥६६॥ संवेष्टय सर्वतो मागैः पतितो धरणीतले । पुरेव बाहबलिना श्रीकण्ठो नमिनन्दनः ।।६।। "चित्रं श्रेणिक ते बाणाः भवन्ति धनुराश्रिताः । उल्कामुखास्तु गच्छन्तः शरीरे नागमूर्तयः ।।६८।। क्षणं बाणाः क्षणं दण्डाः क्षणं पाशत्वमागताः । आमरा ह्यस्त्रभेदास्ते यथा चिन्तितरूपगाः ॥६५॥ कर्मपाशैर्यथा जीवो नागपाशेः स वेष्टितः । भामण्डलेन पद्माज्ञां प्राप्याऽऽत्मीये रथे कृतः ॥७॥
गये थे ऐसे कितने ही दुःखी योद्धा, जीवनको आशासे विमुख हो शस्त्र छोड़ पानीमें घुस गये ॥५६॥ इस तरह जब परस्पर महायोद्धाओंका क्षय करनेवाला, लोकसन्त्रासकारी महायुद्ध हो रहा था तब इन्द्रजित् तीक्ष्ण बाणोंसे लक्ष्मणको और लक्ष्मण इन्द्रजित्को आच्छादित करने में लीन थे।।५७-५८॥ इन्द्रजित्ने अत्यन्त भयंकर महातामस नामक शस्त्र छोड़ा जिसे लक्ष्मणने सूर्यास्त्रके द्वारा नष्ट कर दिया ॥५९|| तदनन्तर क्रोधसे भरे इन्द्रजित्ने नाग बाणोंके द्वारा रथ, शस्त्र तथा वाहनके साथ लक्ष्मणको वेष्टित करना प्रारम्भ किया। तब लक्ष्मणने गरुडास्त्रके द्वारा उस नागास्त्रको उस तरह दूर कर दिया जिस प्रकार कि महातपस्वी योगी पूर्वोपार्जित पापोंके समूहको दूर कर देता है ॥६०-६१।।तदनन्तर मन्त्रिसमूहके मध्यमें स्थित तथा हाथियोंके समूहसे वेष्टित इन्द्रजित्को लक्ष्मणने रथरहित कर दिया ॥६२॥ तब वचन तथा क्रियासे अपनी सेनाकी रक्षा करते हुए इन्द्रजित्ने ऐसा तामसास्त्र छोड़ा कि जिसने महाअन्धकारसे रावणको छिपा लिया ॥६३।। इसके बदले लक्ष्मणने सूर्यास्त्र छोड़कर इन्द्रजित्का मनोरथ नष्ट कर दिया और इच्छानुसार आकृतिको धारण करनेवाले नागबाण छोड़े ॥६४।। इनके फलस्वरूप संग्रामके लिए आते हुए इन्द्रजित्का समस्त शरीर नागोंके द्वारा व्याप्त हो गया और उनके कारण जिस प्रकार पहले भामण्डल पृथिवीपर गिर पड़ा था उसी प्रकार वह भी पृथिवीपर गिर पड़ा ।।६५।। उधर रामने भी धोरेसे सूर्यास्त्रको नष्ट कर तथा नागास्त्रको चलाकर युद्धमें भानुकर्णको रथरहित कर दिया ॥६६।। पहले जिस प्रकार बाहबलीने नमिके पुत्र श्रीकण्ठको जीतकर नागपाशसे बाँध लिया था. उसी प्रकार रामने भी भानुकर्णको सब ओरसे नागपाशसे वेष्टित कर लिया जिससे वह पृथिवीतलपर गिर पड़ा ।।६७॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! वे बाण बड़े ही विचित्र थे। जब वे धनुषपर चढ़ाये जाते थे तब बाणरूप रहते थे, चलते समय उल्काके समान मुखवाले हो जाते थे और शरीरपर जाकर नागरूप हो जाते थे ॥६८|| वे बाण क्षण भरके लिए बाण हो जाते थे, क्षण-भर में दण्डरूप हो जाते थे और क्षण-भरमें नागपाशरूप हो जाते थे, यथार्थमें ये सब शस्त्रोंके भेद देवोपनीत थे तथा मनचाहे रूपको धारण करनेवाले थे॥६९|| आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार संसारी प्राणी कर्मरूपी १. रिपुम् म. । २. हृत्वा म.। ३. सुमुद्धो म.। ४. म. पुस्तके ६८-६९ तमश्लोकयोर्मध्ये 'निजसैन्यार्णवं दाट वा पीयमानं समन्ततः । शस्त्रज्वालाविलासेन कपिप्रलयवह्निना ।।" एष श्लोकोऽधिको वर्तते ।
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