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द्वाषष्टितमं पर्व
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भज्यमानं निजं सैन्यं वीक्ष्य तैः राक्षसोत्तमैः । कपिध्वजमहायोधाः परिप्रापुः सहस्रशः ॥१३।। ग्रस्ता राक्षससैन्यास्तरुच्छितर्विविधायुधैः । महाप्रतिमयैर्वी रैरत्युदात्तविचेष्टितैः ॥१४॥ निजसैन्यार्णवं दृष्ट्वा पोयमानं समन्ततः । शस्त्रज्वालाविलासेन कपिप्रलयवह्निना ॥१५॥ लकेशः कोपनो योर्बु बलवान् स्वयमुस्थितः । शुष्कपत्रोपमान्' दूरं विक्षिपन् शत्रुसैनिकान् ॥१६॥ ततः पलायनोद्युक्तान् परिपाल्य तदा द्रुतम् । स्थितो विभीषणो योद्धं महायोधविभीषणः ॥१७॥ आहवेऽभिमुखीभूतं भ्रातरं वीक्ष्य रावणः । बमाण पृथुकक्रोधो वाक्यमादरवर्जितः ॥१८॥ कनीयानसि स त्वं मे भ्राता हन्तुं न युज्यते । अपसर्पाग्रतो मास्थाः न त्वां शक्तोऽस्मि वीक्षितुम् ॥१९॥ विमीषणकुमारेण जगदे पूर्वजस्ततः । कालेन गोचरत्वं मे नीतः किमवसर्म्यते ॥२०॥ ततः कुमारकोपस्तं पुनरप्याह रावणः । क्लीब क्लिष्ट धिगस्तु त्वां नरकाक कुचेष्टितम् ॥२१॥ त्वया व्यापादितेनापि नैव में जन्यते धृतिः । भवदविधा हि नो योग्याः कतु हर्ष न दीनताम् ॥२२॥ यद्विद्याधरसंतानं त्यक्त्वा मूढोऽन्यमाश्रितः । कर्मणामतिदौरात्म्याज्जैनं त्यक्त्वेव शासनम् ॥२३॥ ततो विभीषणोऽवोचत् किमत्र बहुभाषितः । शृणु रावण कल्याणं भण्यमानम नुत्तमम् ॥२४॥ एवं गतोऽपि चेत् कतु स्वस्य श्रेयः समिच्छसि । राघवेण समं प्रीतिं कुरु सीतां समर्पय ॥२५।। अभिमानोन्नतिं त्यक्त्वा प्रसादय रघुत्तमम् । मा कलकं स्ववंशस्य कार्योषिन्निमित्तकम् ॥२६॥ अथवा मतु मिष्टं ते कुरुषे यन्न मद्वचः । मोहस्य दुस्तरं किं वा बलिनो बलिनामपि ॥२०॥
सारण, कृतान्त, मृत्यु, मेघनाद और संक्रोधन आदि ।।१२।। इन राक्षस योद्धाओंके द्वारा अपनी सेनाको नष्ट होते देख वानर पक्षके हजारों महायोद्धा आ पहुंचे ॥१३।। और आते ही उन्नत, नाना प्रकारके शस्त्र धारण करनेवाले, महाभयंकर, वीर और अत्यन्त उदात्त चेष्टाओंके धारक उन वानर योद्धाओंने राक्षसोंकी सेनाको धर दबाया ॥१४॥ तदनन्तर शस्त्ररूपी ज्वालाओंसे सुशोभित वानररूपी प्रलयाग्निके द्वारा अपनी सेनारूपी सागरको सब ओरसे पिया जाता देख क्रोधसे भरा बलवान् रावण, शत्रु सैनिकोंको सूखे पत्तोंके समान दूर फेंकता हुआ युद्ध करनेके लिए स्वयं उद्यत हआ ॥१५-१६।। तदनन्तर महायोद्धाओंको भयभीत करनेवाला विभीषण भागने में तत्पर वानरोंकी शीघ्र ही रक्षा कर युद्ध करनेके लिए खड़ा हुआ ॥१७।। युद्ध में भाईको सम्मुख खड़ा देख जिसका क्रोध भड़क उठा था ऐसा रावण निरादरताके साथ यह वचन बोला कि तूं छोटा भाई है अतः मुझे तेरा मारना योग्य नहीं है, तू सामनेसे हट जा, खड़ा मत रह, मैं तुझे देखनेके लिए भी समर्थ नहीं हूँ ॥१८-१९।। तदनन्तर विभीषणने बड़े भाई-रावणसे कहा कि तू यमके द्वारों मेरे सामने भेजा गया है अतः अब पीछे क्यों हटता है ? ॥२०॥ पश्चात् विभीषणकुमारपर क्रोध प्रकट करते हुए रावणने उससे पुनः कहा कि रे नपुंसक ! संक्लिष्ट ! नरकाक ! तुझ कुचेष्टीको धिक्कार है ॥२शा तुझे मार डालनेपर भी मेरा यश नहीं होगा, क्योंकि तेरे समान तुच्छ मनुष्य न मुझे हर्ष उत्पन्न कर सकते हैं और न दीनता ही उत्पन्न करनेके योग्य हैं ॥२२॥ जिस प्रकार कोई.कर्मोंका अत्यन्त अशुभ उदय होनेसे जिनशासनको छोड़ अन्य शासनको ग्रहण करता है, उसी प्रकार तुझ मूर्खने भी विद्याधरकी सन्तानको छोड़ अन्य भूमिगोचरीको ग्रहण किया है ॥२३।।
तदनन्तर विभीषणने कहा कि इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या ? हे रावण ! तेरे कल्याणके लिए जो उत्तम वचन कहे जा रहे हैं उन्हें सुन ।।२४। इस स्थितिमें आनेपर भी यदि तू अपना भला करना चाहता है तो रामके साथ मित्रता कर और सीताको समर्पित कर दे ।।२५।। अहंकार छोड़कर रामको प्रसन्न कर स्त्रीके निमित्त अपने वंशको कलंकित मत कर ।।२६।। अथवा तुझे मरना ही इष्ट है इसीलिए मेरी बात नहीं मान रहा है सो ठीक ही है क्योंकि बलवान् मनुष्योंको १. पत्रोपमं म.। २. -कम् म. ।
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