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एकषष्टितमं पर्व एतस्मिन्नन्तरे दिव्यकवचच्छन्नविग्रहौ । लक्ष्मीश्रीवत्सलक्ष्माणौ तेजोमण्डलमध्यगौ ॥१॥ नागारिवाहनारूढौ सुकान्तौ पद्मलक्ष्मणौ । सैन्यसागरमध्यस्थौ सैंहगारुडकेतनौ ॥२॥ परपक्षक्षयं कर्तुमुद्यतो परमेश्वरौ । संग्रामधरणीमध्यं तेन सनतुरुत्कटौ ॥३॥ अग्रतस्त्वरितो जातः सौमित्रिमित्रवत्सलः । दिव्यातपत्रविक्षिप्तदूरभास्करदीधितिः॥४॥ श्रीशैलप्रमुखैर्वी रैर्वृतः प्लवगकेतनैः । दधानस्त्रैदशं रूपमशक्यपरिवर्णनम् ।।५।। अग्रतः प्रस्थिते तस्मिन् द्वादशादित्यभास्वरम् । दृष्टं विभीषणेनेदं जगद्विस्मिततेजसा ।।६।। गरुत्मकेतने तस्मिन् संप्राप्त तत्तथाधनम् । अस्त्रं सान्तमसं क्वापि गतं गरुडतेजसा ॥७॥ गरुत्मत्पक्षवातेन क्षोभितक्षारसिन्धुना। नीता विषधरा नाशं कुभावा इव साधुना ॥८॥ ता_पक्षविनिर्मक्तमयूखालोकसंगतम् । जाम्बूनदरसेनेव जगदासीद्विनिर्मितम् ॥९॥ ततो नमश्चराधीशौ गतपन्नगवन्धनौ । प्रभामण्डलसुग्रीवौ समाश्वासनमापतुः ॥१०॥ सुखेन प्राप्य निद्रां च रत्नांशुकसमावृतौ । अलगदलतारेखासमलंकृतविग्रहौ॥११॥ अधिकं मासमानाङ्गो व्यक्तोच्छवासविनिर्गमौ । निद्राक्षये परं कान्तौ स्वस्थसुप्ताविवोत्थितौ ॥१२॥ ततो विस्मयमापन्नाः श्रीवृक्षप्रथितादयः । विद्याधरगणाधीशाः पप्रच्छुः कृतपूजनाः ॥१३॥ नाथावापत्सु वामेषा दृष्टपूर्वा न जातुचित् । विभूतिरगुता जाता कुतश्चिदिति कथ्यताम् ॥१४॥
अथानन्तर इसी बीचमें जिनके शरीर दिव्य कवचोंसे आच्छादित थे, जो लक्ष्मी और श्रीवत्स चिह्नके धारक थे, तेजोमण्डलके मध्यमें गमन कर रहे थे, सिंह तथा गरुड़ वाहनपर आरूढ़ थे, अत्यन्त सुन्दर थे, सेनारूपी सागरके मध्यमें स्थित थे, सिंह तथा गरुड़ चिह्नसे चिह्नित पताकाओंसे युक्त थे, पर-पक्षका क्षय करनेके लिए उद्यत थे और उत्कट बलके धारक थे, ऐसे परममहिमा सम्पन्न राम और लक्ष्मण विभीषणके साथ रणभूमिके मध्य में आये ॥१-३॥ जिन्होंने दिव्यछत्रके द्वारा सूर्यको किरणें दूर हटा दी थीं तथा जो मित्रोंके साथ स्नेह करनेवाले थे ऐसे शीघ्रतासे भरे लक्ष्मण आगे हुए ॥४॥ उस समय लक्ष्मण हनुमान् आदि प्रमुख वानरवंशी वीरोंसे घिरे थे तथा जिसका वर्णन करना अशक्य था ऐसे देवसदृश रूपको धारण कर रहे थे।॥५॥ लक्ष्मणके आगे प्रस्थान करनेपर आश्चर्यजनक तेजके धारक विभीषणने देखा कि यह संसार एक साथ उदित हुए बारह सूर्योसे ही मानो देदीप्यमान हो रहा है ॥६॥ लक्ष्मणके आते ही वह उस प्रकारका सघन तामस अस्त्र गरुड़के तेजसे न जाने कहाँ चला गया ॥७॥ लवण समुद्रके जलको क्षोभित करनेवाली गरुड़के पंखोंकी वायुसे सब नाग इस प्रकार नष्ट हो गये जिस प्रकार कि साधुके द्वारा खोटे भाव नष्ट हो जाते हैं ।।८।। गरुड़के पंखोंसे छोड़ी हुई किरणोंके प्रकाशसे युक्त संसार ऐसा जान पड़ने लगा मानो स्वर्णरससे हो बना हो ॥९॥
तदनन्तर जिनके नागपाशके बन्धन दूर हो गये थे ऐसे विद्याधरोंके अधिपति सुग्रीव और भामण्डल धैर्यको प्राप्त हुए ॥१०|| जो सुखसे निद्रा प्राप्तकर रत्नमयी कम्बलोंसे आवृत थे, सर्परूपी लताओंकी रेखाओंसे जिनके शरीर अलंकृत थे अर्थात् जिनके शरीरमें नागपाशके गड़रा पड़ गये थे, जो पहलेसे कहीं अधिक सुशोभित थे, और जिनके श्वासोच्छ्वासका निकलना अब स्पष्ट हो गया था, ऐसे दोनों ही राजा इस प्रकार उठ बैठे, जिस प्रकार कि सूखसे सोये पुरुष निद्राक्षय होनेपर उठ बैठते हैं ॥११-१२।। तदनन्तर आश्चर्यको प्राप्त हुए १. सुकेतो म. । २. दुरु -म.। ३. स्वच्छ म. ।
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