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पद्मपुराणे
आस्तां तावन्मनुजजनिताः संपदः काङ्क्षितानां यच्छन्तीष्टादधिकमतुलं वस्तु नाकश्रितोऽपि । तस्मात्पुण्यं कुरुत सततं हे जनाः सौख्यकाङ्क्षाः येनानेकं रविसमरुचः प्राप्नुताश्चर्ययोगम् || १४३॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे विद्यालाभो नाम षष्टितमं पर्व || ६०॥
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करनेमें समर्थं होते हैं ॥ १४२ ॥ | अथवा मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होनेवाली सम्पदाओंकी बात दूर रहे, स्वर्गं सम्बन्धी सम्पदाएँ भी इसे इच्छासे भी अधिक अनुपम सामग्री प्रदान करती हैं । इसलिए सुखको इच्छा रखनेवाले हे भव्यजनो ! निरन्तर पुण्य करो जिससे सूर्यके समान कान्तिके धारक होते हुए तुम अनेक आश्चर्यकारी वस्तुओंके संयोगको प्राप्त हो सको || १४३॥
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इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में राम-लक्ष्मणको विद्याओं की प्राप्तिका वर्णन करनेवाला साठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ६०॥
१. मनुजजनितं म ।
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