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पद्मपुराणे क्रद्धेन कुम्मकर्णेन ततस्ते रणपामनाः । विद्यया स्वापिताः सर्वे दर्शनावरणीजया ॥६॥ निद्राधूर्णितनेत्राणां तेषां शस्त्रावसंगिनाम् । करेभ्यः सायकाः पेतुः शिथिलेभ्यः समन्ततः ॥६१॥ निद्राविद्गाणसंग्रामानेतानव्यक्तचेतनान् । दृष्टाऽमुजत सुग्रीवो विद्या द्राक्प्रतिबोधिनीम् ॥६२॥ प्रतिबुद्धास्तया तेऽथ सुतरां जाततेजसः। हनूमदादयो योद्धं प्रवृत्ताः संकुलं परम् ॥६३॥ शाखाकेसरिचिह्नानां बलमत्यर्थपुष्कलम् । छत्रासिपत्रसंकीर्णमच्छिन्नरणलालसम् ॥६४॥ स्पर्द्धमानं समालोक्य क्षुब्धसागरसंनिभम् । अवस्थां चस्ववाहिन्याः परिप्राप्तामसुन्दरीम् ॥६५॥ *उत्सेहे रावणो योदधं प्रणम्य च तमिन्द्रजित् । कृताञ्जलिरिदं वाक्यमभाषत महाद्यतिः ॥६६॥ तात तात न ते युक्तं संप्राप्तं मयि तिष्ठति । निष्फलत्वं हि मे जन्म सत्येवं प्रतिपद्यते ॥६॥ नखच्छेद्ये तृणे किं वा परशोरुचिता गतिः । ततो भव सुविश्रब्धः करोम्येष तवेप्सितम् ॥६८॥ इत्युक्त्वा मुदितोऽत्यन्तमारुह्य गिरिसंनिभम् । त्रैलोक्यकण्टकामिख्यं गजेन्द्र परमप्रियम् ॥६५॥ गृहीतादरसर्वस्वो महासचिवसंगतः । ऋद्धघाखण्डलसंकाशः प्रवीरो यो मुद्यतः ।।७।। कपिध्वजबलं तेन विविधायुधसंकटम् । ग्रस्तमुत्थितमात्रेण महावीर्येण मानिना ।।७१॥ किष्किन्धाधिपतेः सैन्ये न सोऽस्ति कपिकेतनः । यो न शक्रजिता विद्धः शरैराकर्णसंहितैः॥७२॥ किमयं शक्रजिन्नायं शक्रो वह्नित्यं नु किम् । उतायमपरो भानुरिति वाचः समुद्ययुः ॥७३॥
लगे कि जो शत्रु-सामन्तोंको अत्यन्त दुःसह था ।।५९॥ तदनन्तर रणको खाजसे युक्त उन सब वीरोंको क्रोधसे भरे भानुकर्णने निद्रा नामा विद्याके द्वारा सुला दिया ॥६०|| तत्पश्चात् निद्रासे जिनके नेत्र घूम रहे थे ऐसे शस्त्रोंको धारण करनेवाले उन वीरोंके हाथ सब ओरसे शिथिल पड़ गये तथा उनसे अस्त्र-शस्त्र नीचे गिरने लगे ॥६१|| निद्राके कारण जिनका युद्ध बन्द हो गया था तथा जिनकी चेतना अव्यक्त हो चुकी थी ऐसे उन सबको देख सुग्रीवने शीघ्र ही प्रतिबोधिनी नामकी विद्या छोड़ी ॥६२॥ तदनन्तर उस विद्याके प्रभावसे प्रतिबुद्ध होनेके कारण जिनका तेज अत्यन्त बढ़ गया था ऐसे हनुमान् आदि वीर अत्यन्त भयंकर युद्ध करनेके लिए प्रवृत्त हुए ॥६३।। वानरवंशियोंकी वह सेना बहुत बड़ी थी, छत्र, खड्ग तथा वाहनोंसे व्याप्त थी, उसकी युद्धकी लालसा समाप्त नहीं हुई थी, उत्तरोत्तर स्पर्धा करनेवाली थी, और क्षोभको प्राप्त हुए सागरके समान जान पड़ती थी। इसके विपरीत रावणकी सेनाकी दशा अत्यन्त अशोभनीय हो रही थी सो वानरवंशियोंकी सेना तथा अपनी सेनाकी दशा देख रावण युद्धके लिए उत्साही हुआ सो महादीप्तिका धारक इन्द्रजित् प्रणाम कर तथा हाथ जोड़कर यह कहने लगा कि ॥६४-६६।। हे तात ! हे तात ! मेरे रहते हुए इस समय आपका युद्धके लिए तत्पर होना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा होनेपर मेरा जन्म निष्फलताको प्राप्त होता है ।।६७।। अरे! जो तृण नखके द्वारा छेदा जा सकता है वहाँ परशुका प्रयोग करना क्या उचित है ? इसलिए आप निश्चिन्त रहिए आपका मनोरथ मैं पूर्ण करता हूँ ॥६८॥ इतना कहकर अत्यधिक प्रसन्नतासे भरा इन्द्रजित् पर्वतके समान त्रैलोक्यकण्टक नामक अपने परम प्रिय गजेन्द्रपर सवार होकर युद्ध के लिए उद्यत हुआ। उस समय जिसने आदररूपी सर्वस्व ग्रहण किया था, ऐसा वह इन्द्रजित् महामन्त्रियोंसे सहित था, सम्पदासे इन्द्रके समान जान पड़ता था तथा अतिशय धोर-बीर था ॥६९-७०।। उस महाबलवान् मानी इन्द्रजित्ने उठते ही नाना शस्त्रोंसे भरी वानरोंकी सेना क्षणमात्रमें ग्रस ली–दबा दी ॥७१।। सुग्रीवको सेनामें ऐसा एक भी वानर नहीं था जिसे इन्द्रजित्ने कान तक खिचे हुए बाणोंसे घायल नहीं किया हो ।।७२।। उस समय लोगोंके मुखसे १. यथा म., क., ज.। २. स वाहिन्या: म.। ३. उत्सहे म.। ४. परमं प्रियः म.। ५. मस्थित-म. । ६. वह्निरियं म.।
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