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पद्मपुराणे लङ्कानाथस्य पुत्रेण निरस्त्रः सूर्यनन्दनः । कृतः संग्रामशौण्डेन संग्रामादनिवर्तकः ॥८९॥ तेनापि तस्य वज्रेण सर्वशस्त्रं निराकृतम् । पुण्यानुकूलितानां हि नैरन्तयं न जायते ॥१०॥ अवतीर्य ततः क्रुद्धो नागादिन्द्रजितो द्रुतम् । सिंहस्यन्दनमारुह्य पिञ्जरीकृतपुष्करम् ॥५१॥ समाहितमतिर्नानाविद्यास्त्रगतिपण्डितः । योदधुमभ्युद्यतो बिभ्रद्रसन्नवमिवाहवे ।।१२।। अस्त्रं धनौघनिर्घोषं संप्रयुज्य सवारुणम् । दिशः' किष्किन्धराजस्य चकारालोकवर्जिताः ॥१३॥ तेनापि पवनास्त्रेण कृसछत्रध्वजादिना । तदस्त्रं वारुणं क्वापि नीतं तूलोत्करोपमम् ॥१४॥ घनवाहनवीरोऽपि प्रभामण्डलभूभृतः । आग्नेयास्त्रनियोगेन चकार धनुरि-धनम् ।।१५।। तस्य स्फुलिङ्गसंसर्गादन्येषामपि चापिनाम् । धूमोद्गारानमुञ्चन्त धनुषि भयवीक्षितम् ॥१६॥ नितान्तबहयोधणां जीवितग्रसनादिव । प्राप्तानां परमाजीण धनुषां ते तदाभवन् ॥१७॥ वारुणेन ततोऽस्रेण स्वरितं जनकात्मजः । आग्नेयास्त्रं निराचक्रे स्वचक्रे कृतपालनः ॥९८।। ततो मन्दोदरीसूनुश्चके तं रथवर्जितम् । तथाविधमहासत्त्वमाकुलत्वविवर्जितम् ।।९।। प्रयोगकुशलश्चारुमस्त्रं तामसमक्षिपत् । तेनान्धकारितं सैन्यं सर्व जनकजन्मनः ।। १.०॥ स नाजानाद् द्विपं न क्ष्मांनात्मीयं न च शात्रवम् । अन्धध्वान्तपरिच्छन्नो मूर्छामिव समागतः ।।१०१॥
कवचकी टक्करसे जो अग्निके कण उत्पन्न हुए थे, उनके समूहसे आकाश इस प्रकार पीला हो गया मानो चमकती हुई उल्काओंके तिलगोंके समूहसे हो पीला हो रहा हो ॥८८।। युद्ध-निपुण लंकानाथके पुत्र इन्द्रजित्ने सुग्रोवको निःशस्त्र कर दिया फिर भी वह संग्रामसे पीछे नहीं हटा ॥८९।। प्रत्युत इसके विपरीत सुग्रोवने भी वज्रके द्वारा इन्द्रजित्के सर्वशस्त्र दूर कर दिये सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यात्मा जीवोंके किसी कार्यमें अन्तर नहीं पड़ता ॥९०।। तदनन्तर क्रोध से भरा इन्द्रजित् शीघ्र ही हाथीसे उतरकर आकाशको पीला करनेवाले सिंहोंके रथपर आरूढ़ हुआ ॥९१॥ तत्पश्चात् जिसको बुद्धि स्थिर थी, जो नाना विद्यामय अस्त्र-शस्त्रोंके चलाने में निपुण था और जो युद्ध में मानो नवीन रस धारण कर रहा था ऐसा इन्द्रजित् मायामय युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ॥९२॥ प्रथम ही उसने मेघ-समूहके समान गर्जना करनेवाला वारुण अस्त्र छोड़कर सुग्रीवको दिशाओंको प्रकाशसे रहित कर दिया ॥९३॥ इसके बदले सुग्रीवने भी छत्र तथा ध्वजा आदिको छेदनेवाला पवन बाण चलाया जिससे इन्द्रजित्का वारुण अस्त्र रुईके समूहके समान कहीं चला गया ॥१४॥
उधर वीर मेघवाहनने भी आग्नेय बाण चलाकर राजा भामण्डलके धनुषको ईन्धन बना दिया अर्थात् जला दिया ।।९५॥ उस धनुषके तिलगोंके सम्बन्धसे अन्य धनुषधारियोंके धनुष भी धूम छोड़ने लगे जिसे सब सेनाने बड़े भयसे देखा ॥२६॥ उन धनुषोंने अनेक योद्धाओंके प्राण ग्रसित किये थे इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो उन्हें अत्यधिक अजीर्ण हो हो गया हो ॥९७।। तदनन्तर अपने चक्र-सेनाको रक्षा करते हुए भामण्डलने शीघ्र ही वारुण अस्त्र छोड़कर आग्नेय अस्त्रका निराकरण कर दिया ॥९८॥ तत्पश्चात् मन्दोदरोके पुत्र मेघवाहनने प्रकारके महापराक्रमो एवं आकुलतासे रहित भामण्डलको रथरहित कर दिया अर्थात् उसका रथ तोड़ डाला ।।९९|| यही नहीं प्रयोग करने में कुशल मेघवाहनने सुन्दर तामस बाण भी चलाया जिससे भामण्डलकी समस्त सेना अन्धकारसे युक्त हो गयो ।।१००॥ वह उस समय अन्धकारके कारण न अपने हाथी तथा पृथिवीको जान पाता था, न शत्रु सम्बन्धी हाथी तथा पृथिवी ही को जान पाता था। गाढ़ अन्धकारसे आच्छादित हुआ वह मानो मूर्छाको ही प्राप्त हो रहा था ॥१०१॥ १. दिशा म.। २. बजिता म. । ३. स नो जनो द्विषो न क्षमा म. ।
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