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षष्टितमं पर्व
३७९
ग्रस्यमानं निजं सैन्यं वीक्ष्य शक्रजिता ततः । सुग्रीवः स्वयमुद्यात: प्रभामण्डल एव च ।।७४॥ तबटानामभूयुद्धमन्योन्याह्वानसंकुलम् । शस्त्रान्धकारिताकाशमनपेक्षितजीवितम् ।।७५॥ 'अश्वरश्वाः समं लग्नाः नागा नागै रथा रथैः । निजनाथानुरागेण महोत्साहाँ भटा भटैः ॥७६॥ जगादेन्द्रजितः ऋद्धः किष्किन्धेशं पुरः स्थितम् । अपूर्वशस्त्रभूतेन स्वरेण गगनस्पृशा ॥७७॥ दशास्यशासनं त्यक्त्वा शाखामृगपशो त्वया । क्वाधुना गम्यते पाप मयि कोपमुपागते ॥७८॥ इन्दीवरनिभेनाद्य सायकेन तवामुना । शिरश्छिनमि संरक्षां कुरुतां क्षितिगोचरौ ।।७९॥ किष्किन्धेशस्ततोऽवोचत् किमेमिर्गर्जितैमुधा । मानशृङ्गमिदं भग्नं तत्तु पश्य मयाधुना ॥८॥ इत्युक्त कोपसंभारं वहन्निन्द्रजितोऽद्भुतम् । चापमास्फालयन्नस्य समीपत्वमुपागतः ।।८१॥ शशिमण्डलसंकाशच्छत्रच्छायानुसेवितः । ममोच शरसंघातं किष्किन्धाधिपति प्रति ॥८२॥ सोऽप्याकर्णसमाकृष्टान् बाणान्नादोपलक्षितान् । निजरक्षामहादक्षश्चिक्षेपेन्द्रजितं प्रति ॥८३॥ तेन बाणसमूहेन संततेन निरन्तरम् । जातं नमस्तलं सर्व मूर्तियुक्तमिवापरम् ।।८४॥ मेघवाहनवीरेण प्रभामण्डलसुन्दरः । आहूतो वज्रनक्रश्च विराधितमहीभृता ।।८।। विराधितनरेन्द्रण वज्रनक्रनरोत्तमः। राजन् वक्षसि चक्रेण भासुरेणाभिपातितः ॥८६॥ ताडितो वज्रनक्रेण सोऽपि चक्रेण वक्षसि । विना हि प्रतिदानेन महती जायते पा ।।८।। चक्रमनाहनिष्पेषजन्मवह्निकणोत्करैः । चञ्चदुल्कास्फुलिङ्गौघपिङ्गतां गगनं गतम् ॥८८॥
इस प्रकारके वचन निकल रहे थे कि यह इन्द्रजित् नहीं है ? किन्तु इन्द्र है ? अथवा अग्निकुमार देव है, अथवा कोई दूसरा सूर्य ही उदित हुआ है ।।७३॥ तदनन्तर अपनी सेनाको इन्द्रजित्के द्वारा दबी देख स्वयं सुग्रोव और भामण्डल युद्धके लिए उठे॥७४|| तत्पश्चात् उनके योद्धाओंमें ऐसा युद्ध हुआ कि जो परस्परके बुलानेके शब्दसे व्याप्त था, शस्त्रोंके द्वारा जिसमें आकाश अन्धकारयुक्त हो रहा था और जिसमें प्राणोंको अपेक्षा नहीं थी ।।७५।। घोड़े घोड़ोंसे, हाथी हाथियोंसे, रथ रथोंसे और अपने स्वामीके अनुरागके कारण महोत्साहसे युक्त पैदल सैनिक पैदल सैनिकोंसे भिड़ गये ||७६।।
अथानन्तर क्रोधसे भरा इन्द्रजित् सामने खड़े हुए सुग्रीवको लक्ष्य कर अपूर्व शस्त्रभूत गगनस्पर्शी स्वरसे बोला ||७७॥ कि अरे ! पशुतुल्य नीच वानर ! पापी! रावणकी आज्ञा छोड़कर अब तू मेरे कुपित रहते हुए कहाँ जाता है ? ||७८॥ आज मैं इस नील कमलके समान श्याम तलवारसे तेरा मस्तक काटता हूँ, भूमिगोचरी राम-लक्ष्मण तेरी रक्षा करें ॥७९॥ तदनन्तर सुग्रीवने कहा कि इन व्यर्थकी गर्जनाओंसे क्या लाभ है ? देख तेरा मानरूपी शिखर मैं अभी ही भग्न करता हूँ ॥८०।। इतना कहते ही क्रोधके भारको धारण करनेवाला इन्द्रजित् अद्भुत रूपसे धनुषका आस्फालन करता हुआ सुग्रीवके समीप पहुँचा ।।८१॥ तत्पश्चात् इधर चन्द्रमण्डलके समान छत्रकी छायासे सेवित इन्द्रजित्ने सुग्रीवको लक्ष्य कर बाणोंका समूह छोड़ा ।। ८२।। उधर अपनी रक्षा करने में अत्यन्त चतुर सुग्रीवने भी कान तक खिचे तथा शब्दसे युक्त बाण इन्द्रजित्की ओर छोड़े ।।८३।। उन विस्तृत बाणोंके समूहसे निरन्तर व्याप्त हुआ समस्त आकाश ऐसा हो गया मानो मूर्तिधारी दूसरा ही आकाश हो ॥८४।। उधरसे वीर मेघवाहनने भामण्डलको ललकारा और इधरसे राजा विराधितने वज्रनक्रको पुकारा ॥८५॥ गौतम स्वामी श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! राजा विराधितने वज्रनक्र राजाकी छातीपर देदीप्यमान चक्रकी चोट देकर उसे गिरा दिया ॥८६।। इसके बदले वज्रनक्रने भी संभलकर विराधितकी छातीपर चक्रका प्रहार किया सो ठोक ही है क्योंकि बदला चुकाये बिना बड़ी लज्जा उत्पन्न होती है ।।८७॥ उस समय चक्र और १. अश्वरश्वैः म. । २. महोत्साहभटाः म.। ३. समाकृष्यन् म.। ४. निजरक्षमहारक्ष -म. । ५. राजवक्षसि म.।
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