Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 382
________________ ३६४ पक्ष्यपुराणे अथाग्रकीर्तिमाध्वीकरसास्वादनलालसौ। द्विरदस्यन्दनारूढावसोढारिबलस्वनी ॥४२॥ प्रथमं निगतोदात्तप्रतापी शौर्यशालिनौ । हस्तग्रहस्तनामानौ लङ्कातो निर्गतौ ॥१३॥ अनापृच्छयाऽपि तत्काले स्वामिनो राजते तयोः । दोषोऽपि हि गुणीभावं प्रस्ताव पते ॥४४॥ मारीचः सिंहवनः स्वयंभूः शम्भुरुत्तमः । पृथुः पृथुबलोपेतचन्द्राक्षी शुकमारो ॥४!! गजवीमत्सनामा बज्राक्षो वनभृद्युतिः । गंमीरनिनदो नक्रो मकरः कुलिशस्वनः ॥ ४६॥ उनादस्तथा सुन्दः निकुम्मकुम्भशब्दितः । संध्याक्षो विभ्रमरो माल्यवान् खरनिस्वनः ।।४।। जम्बूमाली शिखावीरो दुर्द्धर्षश्च महाबलः । एते केसरिभिर्युक्तः सामन्ता निर्यधू रथैः ॥ ८॥ वज्रोदरोऽथ शक्रामः कृतान्तो विघटोदरः । महाशनिरवश्चन्द्रनग्यो मृत्युः सुभएणः ॥१९॥ कुलिशोदरनामा च धूम्राक्षो मुदितस्तथा। विधजिह्वो महामाली कनकः शोधावनिः ॥५०॥ क्षोभणो धुन्धुरुद्धामा डिण्डिडिण्डिमडम्बराः । प्रचडो डमराण्डकुण्टहालाहलादयः ॥५१॥ व्याघ्रयुक्तरिमन्तुङ्ग स्थैरुद्भासिताम्बरैः । अहंयदो विनिर्याताः सविध्वंसबुद्धः ॥ १२ ॥ विद्याकीशिकविख्यातिः सपबाहमहाद्यतिः । शंखप्रशंखनामानौ रागो भिन्नाजनमा: ।।५।। पुष्पचूडो महारको घटास्त्रः पुष्पखेचरः । अनङ्गकुसुमः कामः कामावर्तस्यराणी ॥५॥ कामाग्निः कामराशिश्च कनकामः शिलीमुखः । सौम्यवक्त्रो महाकामो हेनगौरादयस्तथा ।।१५।। एतेऽपि वातरंहोभी रथैर्युक्ततुरङ्गमैः । यथायथं विनिर्जग्मुरालयेभ्यो रसबलाः ।।५६।। कदम्बविटपौ भीमो भीमनादो भयानकः । शालक्रीडितः हिंसश्चलाङ्गो विधदम्बुकः ।।५।। बड़ो कठिनाईसे प्रियाओंको समझा-बुझा सके थे ऐसे योधा तो बाहर निकले और उनकी स्त्रियाँ व्याकुलचित्त होती हुई शय्याओंपर पड़ रहीं ।।४१।। अथानन्तर उत्तम कीतिरूपो मधुरसके आस्वादनमें जिनका मन लग रहा था, जो हाथियोंके रथपर आरूढ़ थे, जिन्होंने शत्रु सेनाका शब्द सहन नहीं किया था, जिनका उत्कट प्रताप पहले ही निकल चुका था, और जो शूरवीरताने सुशोभित थे, ऐसे हस्त और प्रहस्त नामके दो राजा लंकासे सर्वप्रथम निकले ॥४२-४३।। यद्यपि वे दोनों स्वामीसे पूछकर नहीं निकले थे तथापि उस समय उनका स्वामीसे नहीं पुछना शोभा देता था क्योंकि अवसरपर दोष भी गुणरूपताको प्राप्त हो जाता है ।।४।। मारीच, सिंहजवन, स्वयम्भू, शम्भु, उत्तम, विशाल सेनासे सुशोभित पृथु, चन्द्र, सूर्य, शुक, सारण, गज, वीभत्स इन्द्रके समान कान्तिको धारण करनेवाला वज्राक्ष, गम्भीर-नाद, नक्र, वज्रनाद, उग्रनाथ, सुन्द, निकुम्भ, सन्ध्याक्ष, विभ्रम, क्रूर, माल्यवान, खरनाद, जम्बमाली, शिखीवीर और महाबलवान दुर्द्धष ये सब सामन्त सिंहोंसे जुते हुए रथोंपर सवार हो बाहर निकले ॥४५-४८॥ उनके पीछे वज्रोदर, शक्राभ, कृतान्त, विघटोदर, महावज्ररव, चन्द्रनख, मृत्यु, सुभीषण, वज्रोदर, धूम्राक्ष, मुदित, विद्युज्जिह्व, महामाली, कनक, क्रोधनध्वनि, क्षोभण, धुन्धु, उद्धामा, डिण्डि, डिण्डिम, डम्बर, प्रचण्ड, डमर, चण्ड, कुण्ड और हालाहल आदि सामन्त, जिनमें व्याघ्र जुते थे, जो ऊँचे थे तथा आकाशको देदीप्यमान करनेवाले थे ऐसे रथोंपर सवार हो बाहर निकले। ये सभी सामन्त महाअहंकारी तथा शत्रुनाशकी भावना रखनेवाले थे।।४२-५२।। उनके पोछे विद्याकोशिक, सर्पवाहु, महाद्युति, शंख, प्रशंख, राग, भिन्नांजनप्रभ, पुष्पचूड, महारक्त, घटास्त्र, पुष्पखेचर, अनंगकुसुम, काम, कामावर्त, स्मरायण, कामाग्नि, कामराशि, कनकाभ, शिलीमुख, सौम्यवक्त्र, महाकाम तथा हेमगौर आदि सामन्त, वायुके समान वेगशाली घोड़ोंके रथोंमें सवार हो यथायोग्य अपने-अपने घरोंसे निकले। इन सबकी सेनाएँ प्रचण्ड शब्द कर रही थीं ।।५३-५६।। तदनन्तर १. -वसोढी विरलस्वनी म.। २. प्रयाणे म.। ३. सिंहजघनः ज., ख.। ४. वज्राक्ष्यो म.। ५. गंभीरो निनदो म. । ६ विभ्रमः क्रूरो म.,ख. । ७. -प्रभो म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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