Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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अष्टपञ्चाशत्तम पर्व
आस्तृणद्वीक्ष्य तत्सैन्यमुद्वेलमिव सागरम् । नलनीलमरुत्पुत्रजाम्बवाद्याः सुखेवरः ॥१॥ रामकार्यसमुद्युक्ताः परमोदारचेष्टिताः । महाद्विपयुतैर्दीप्तः स्यन्दनैर्निर्ययुर्वरैः ॥२॥ संमानो जयमित्रश्च चन्द्राभो रतिवर्द्धनः । कुमुदावर्तसंज्ञश्च महेन्द्रो भानुमण्डलः ॥३॥ अनुद्धरो दृढरथः प्रीतिकण्ठो महाबलः । समुन्नतबल: सूर्यज्योतिः सर्वप्रियो बलः ॥४॥ सर्वसारश्च दुर्बुद्धिः सर्वदः सरभो मरः । अभृष्टो निर्विनष्टश्च संत्रासो विघ्नसूदनः ।।५।। नादो वर्वरकः पापो लोलपाटनमण्डलौ । संग्रामचपलाद्याश्च परमा खेचराधिपाः ॥६॥ शार्दूलसंगतैस्तुङ्ग रथैः परमसुन्दरैः । नानायुधश्ताटोपा निर्जग्मुः पृथुतेजसः ॥७॥ प्रस्तरो हिमवान् मङ्गः प्रियरूपादयस्तथा । एते द्विपयुतैर्योधं निर्ययुः सुमहारथैः ॥८॥ दुःप्रेक्षः पूर्णचन्द्रश्च विधिः सागरनिःस्वनः । प्रियविग्रहनामा च स्कन्दश्चन्दनपादपः ॥९॥ चन्द्रौशुरप्रतीधातो महाभैरवकीर्तनः । दुष्टसिंहकटिः क्रुष्टः समाधिबहुलो हलः ॥१०॥ इन्द्रायुधो गतत्रासः संकटप्रहरादयः । एते हरियुतैस्तूर्ण सामन्ता निर्ययू रथैः ।।११।। विद्युत्को बलः शीलः स्वपक्षरचनो घनः । संमेदो विचलः सालः कालः क्षितिवरोऽङ्गदः ।।१२।। विकालो लोलकः कालिमङ्गश्चण्डोर्मिरूर्जितः । तरङ्गस्तिलकः कीलः सुषेणस्तरलो बलिः ॥१३॥ भीमो मीमरथो धर्मो मनोहरमुखः सूखः । प्रमत्तो मर्दको मत्तः सारो रत्नजटी शिवः ॥१४॥ दूषणो भीषणः कोणः विघटाख्यो विराधितः । मेरू रणखनिः क्षेमः बेलाक्षेपी महाधरः ॥१५॥ नक्षत्रलुब्धसंज्ञश्च संग्रामो विजयो जयः । नक्षत्रमालकः क्षोदः तथातिविजयादयः ।।१६॥
अथानन्तर लहराते हुए सागरके समान व्याप्त होती हुई रावणकी उस सेनाको देख, श्रीरामके कार्य करने में उद्यत परम उदार चेष्टाओंके धारक नल, नील, हनुमान्, जाम्बव आदि विद्याधर, महागजोंसे जुते देदीप्यमान उत्तम हाथियोंसे युक्त रथोंपर सवार हो कटकसे निकले ॥१-२।। सम्मान, जयमित्र, चन्द्राभ, रतिवर्धन, कुमुदावतं, महेन्द्र, भानुमण्डल, अनुद्धर, दृढरथ, प्रीतिकण्ठ, महाबल, समुन्नतबल, सूर्यज्योति, सर्वप्रिय, बल, सर्वसार, दुर्बुद्धि, सर्वद, सरभ, भर, अमृष्ट, निर्विनष्ट, सन्त्रास, विघ्नसूदन, नाद, वर्वरक, पाप, लोल, पाटनमण्डल और संग्रामचपल आदि उत्तमोत्तम विद्याधर राजा व्याघ्रोसे जुते हुए परम सुन्दर ऊंचे रथोंपर सवार हो बाहर निकले । ये सभी विद्याधर नाना प्रकार के शस्त्रोके समूहको धारण कर रहे थे तथा विशाल तेजके धारक थे ॥३-७॥ प्रस्तर, हिमवान्, भंग तथा प्रियरूप आदि ये सब हाथियोंसे जुते उत्तम रथोंपर सवार हो युद्ध के लिए निकले ॥८॥ दुष्प्रेक्ष, पूर्णचन्द्र, विधि, सागरनिःस्वन, प्रियविग्रह, स्कन्द, चन्दनपादप, चन्द्रांशु, अप्रतोधात, महाभैरव, दुष्ट, सिंहकटि, क्रुष्ट, समाधिबहुल, हल, इन्द्रायुध, गतत्रास और संकटप्रहार आदि, ये सब सामन्त सिंहोंसे जुते रथोंपर सवार हो शीघ्र ही निकले ॥९-११॥ विद्युत्कर्ण, बल, शील, स्वपक्षरचन, घन, सम्मेद, विचल, साल, काल, क्षितिवर, अंगद, विकाल, लोलक, कालि, भंग, चण्डोमि, ऊर्जित, तरंग, तिलक, कोल, सुषेण, तरल, बलि, भीम, भीमरथ, धर्म, मनोहरमुख, सुख, प्रमत्त, मर्दक, मत्त, सार, रत्नजटी, शिव, दूषण, भीषण, कोण, विघट, विराधित, मेरु, रणखान, क्षेम, बेलाक्षेपी, महाधर, नक्षत्रलुब्ध, संग्राम, विजय, रथ,
१. आस्तणं ख. । २. प्रीतिकण्ठमहाबली ज, । ३. सूर्यः द्योतिः ज. 1४. सुमहारथाः म., ज.।
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