________________
३६६
पद्मपुराणे
प्राप्ते काले कर्मणामानुरूप्यादातुं योग्यं तत्फलं निश्चयाप्यम् । शक्तो रोर्बु नैव शक्रोऽपि लोके वार्तान्येषां केव वाङमात्रमाजाम् ।।७३॥ वीरा योद्धं दत्तचित्ता महान्तो वाहारूढाः शस्त्रमाराजिहस्ताः ।
कृत्वावज्ञां वारकाणां समेषां' यान्त्यप्युदग्राही रविं प्रत्यभीताः ॥७॥ इत्याचे रविषणाचार्यप्रोक्त पद्मपुराणे रावणबलनिर्गमनं नाम सप्तपञ्चाशत्तमं पर्व ॥५७॥
भारी गर्वसे मूढ़ तथा बड़ी-बड़ी सेनाओंसे उद्धत राक्षसोंके समूह यद्यपि इन अशुभ स्वप्नको जानते थे तो भी युद्ध करनेके लिए बराबर नगरीसे बाहर निकल रहे थे ॥७२।। गौतमस्वामी कहते हैं कि जब कर्मोकी अनुकूलताका समय आता है तब देनेके योग्य समस्त पर्यायकी प्राप्ति निश्चयसे होतो है उसे रोकने के लिए लोकमें इन्द्र भी समर्थ नहीं है। फिर दूसरे प्राणियोंकी तो वार्ता ही या है ॥७३॥ जिनका चित्त यद्धमें लग रहा था. जो स्वयं महान थे, वाहनोंपर सवार थे और शस्त्रोंकी कान्तिका समूह जिनके हाथमें था अथवा जिनके हाथ शस्त्रोंकी कान्तिसे सुशोभित थे ऐसे शूरवीर मनुष्य निर्भीक हो निषेध करनेवाले इन समस्त अशकुनोंकी उपेक्षा करते हुए उस प्रकार आगे बढ़े जाते थे जिस प्रकार राहु सूर्यमण्डलके प्रति बढ़ता जाता है ।।७४॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराणमें रावणको सेना लंका
बाहर निकली इस बातका वर्णन करनेवाला सत्ताननवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥५७॥
0
१. समेत क.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org