________________
एकोनपष्टितमं पर्व
उवाच श्रेणिकोऽथैवं विद्याविधिविशारदौ । हस्तप्रहस्तसामन्ती जितपूर्वी न केनचित् ॥ १॥ महदाश्चर्यमेतन्मे ताभ्यां तौ निहतौ कथम् । अत्र में कारणं नाथ गणष्टग्वक्तुमर्हसि ॥२॥ ततो गणधरोऽवोचच्छृणु' तत्त्वविशारदः । राजन् कर्माभिनुन्नानां जन्तूनां गतिरीदृशी ॥३॥ पूर्वकर्मानुभावेन स्थितिर्दुः कृतिनाभियम् । असौ मारयिता तस्य यो येन निहितः पुरा ||४|| असौ मोचयिता तस्य बन्धनव्यसनादिषु । यो येन मोचितं पूर्वमनर्थे पतितो नरः ||५|| आलौकिक मर्यादाः प्रातिवेश्मिकवासिनः । निःस्वाः कुटुम्बिनः स्थाने कुशस्थलकनामनि ॥६॥ इन्धकः पलवश्चैव तत्रैकोदरसंभवौ । पुत्रदारपरिक्लिष्टौ विप्रौ लाङ्गलकर्मकौ ॥७॥ सानुकम्पौ स्वभावेन साधुनिन्दापराङ्मुखौ | जैन मित्रपरिष्वङ्गाद् भिक्षादानादिसेविनौ ॥८॥ द्वितीयं निःस्वयुगलं प्रतिवेश्मोषितं तयोः । स्वभावनिर्दयं क्रूरं लौकिकोन्मार्गमोहितम् ॥९॥ वण्टने राजदानस्य संजाते कलहे सति । ताभ्यामत्यन्तरौद्राभ्यां तताविन्धकपल्लवौ ॥ १० ॥ साधुदानाद्वरिक्षेत्रे जातौ सद्भोगभोजिनौ । पल्यद्वयक्षये जातौ देवलोकनिवेशिनौ ||११|| अधर्मपरिणामन क्रूरौ तु प्राप्तपञ्चतौ । शशौ काले अरारण्ये जातौ दुःखातिसंकटे ॥१२॥ मिथ्यादर्शनयुक्तानां साधुनिन्दनकारिणाम् । प्राणिनां पापकूटानां भवत्येवेदृशी गतिः ॥ १३ ॥
अथानन्तर राजा श्रेणिकने गोतमस्वामोसे इस प्रकार कहा कि हे भगवन् ! विद्याओं की विधि में निपुण जो हस्त और प्रहस्त नामक सामन्त पहले किसीके द्वारा नहीं जीते जा सके वे बड़ा आश्चर्य है कि नल और नीलके द्वारा कैसे मारे गये ? हे नाथ! आप मेरे लिए इसका कारण कहिए ॥१-२॥ तदनन्तर श्रुत रहस्यके ज्ञाता गौतम गणधर ने कहा कि हे राजन् ! कर्मोंसे प्रेरित प्राणियों की ऐसी ही गति होती है || ३ || पूर्वकर्मके प्रभावसे पापी जीवोंकी यह दशा है कि पहले जो जिसके द्वारा मारा जाता है वह उसे मारता है || ४ || पहले जिसने विपत्ति में पड़े हुए जिस मनुष्य को उस विपत्ति से छुड़ाया है वह उसे भी बन्धन तथा व्यसन- संकट आदिके समय छुड़ाता है ||५|| इनकी कथा इस प्रकार है कि कुशस्थल नामक नगर में लौकिक मर्यादाको पालनेवाले कुछ दरिद्र कुटुम्बी पास-पासमें रहते थे || ६ || उनमें इन्धक और पल्लवक नामक दो भाई थे जो एक ही माताके उदरसे उत्पन्न थे, पुत्रों तथा स्त्रियोंके कारण क्लेशको प्राप्त रहते थे, जातिके ब्राह्मण थे, हल चलानेका काम करते थे, स्वभावसे दयालु थे, साधुओंकी निन्दासे विमुख थे, तथा अपने एक जैन - मित्रकी संगति से आहारदान आदि कार्योंमें तत्पर रहते थे ॥ ७-८ ।। उन दोनों के पड़ोस में ही एक दूसरा दरिद्र कुटुम्बियों का युगल रहता था जो स्वभावसे निर्दय था, दुष्ट था और लौकिक मिथ्या प्रवृत्तियोंसे मोहित रहता था || ९ || एक बार राजाकी ओरसे जो दान बँटता था उसमें कलह हो गयी जिससे अत्यन्त क्रूर परिणामोंके धारक उन दरिद्र कुटुम्बियोंके द्वारा इन्धक और पल्लवक मारे गये ||१०|| मुनिदानके प्रभावसे दोनों, हरिक्षेत्र में उत्तम भोगोंको भोगनेवाले आर्य हुए। वहाँ दो पल्की उनकी आयु थी । उसके पूर्ण होनेपर दोनों ही देवलोक में उत्पन्न हुए || ११ | दूसरे जो क्रूर दरिद्र कुटुम्बी थे वे अधर्मरूप परिणामसे मरकर दुःखोंसे परिपूर्ण कालंजर नामक वनमें खरगोश हुए ||१२|| सो ठीक ही है क्योंकि मिथ्यादर्शनसे युक्त तथा साधुओंकी निन्दा
१. च्छृणु तत्वविशारदः म । २. पुत्रादर- म. । ३. विद्धो म । ४. विभागकरणे, बन्धने म. । ५. काले जरारण्ये म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org