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सप्तपञ्चाशत्तम पर्व
३६३
यियासोः शस्त्रहस्तस्य कण्ठार्पितभुजद्वया । काचिद्दोलायनं चक्रे गजेन्द्रस्येव पद्मिनी ॥२७॥ काधित्संनाहरुद्वस्य पत्युर्देहस्य संगमम् । अप्राप्य परमं प्राप्ता पीडामङ्कमपि श्रिता ॥२८॥ 'अबालिकां दृष्ट्वा काचित्कान्तस्थ वक्षसि । ईारसेन संस्पृष्टा किंचित्कुञ्चितलोचना ॥२५॥ अर्द्धसंनाहनामायं मया परिहिता प्रिये । इति पुंशब्दयोगेन पुनस्तोषमुपागता ॥३०॥ ताम्बूलप्रार्थनव्यङ्गात् काचित् प्राप्य प्रियाधरम् । अमुञ्चत् सुखिनी कृच्छ्रात् कृत्वा बणविभूषितम्॥३॥ काचिन्निवर्त्य मानावि प्रियेण रणकाक्षिणा । संनाहकण्ठसूत्रस्य बन्धव्याजेन गच्छति ॥३२॥ एकतो दयितादृष्टिरन्यतः तूर्यनिस्वनः । इति हेतुद्वयादोलामारूद भटमासम् ॥३३॥ स्त्रीणां परिहरन्तीनां वाष्पपातममङ्गलम् । सस्यामपि दिदृक्षायां निमेषो नाभवत् दृशाम् ॥३४॥ अगृहीत्वैव संनाहं केचित् त्वरितमानसाः । यथालब्धायुधं योधा नियुयुर्दशालिनः ॥३५॥ रणसंजाततोषेण शरीरे पुष्टिमागते । कस्यचिद् रणशौण्डस्य वर्म माति स्म नो निजम् ॥३६॥ श्रुत्वा परचमूतूर्यस्वनं कश्चिद भटोत्तमः । चिररूव्रण रक्तं मुमोचोछवासविग्रहः ॥३७॥ पिनद्धं कस्यचिद् वर्म सुदृढं तोषहारिणः । वर्द्धमानं ततः शीर्ण पुराण कटायितम् ॥३॥ विश्रब्धं कस्यचिजाया समाधानपरायणा । सारयन्ती मुहुस्तस्थौ शिरस्त्राणं सुमाषिता ॥३९॥ प्रियापरिमलं कश्चिद्दीयमानः स्वयक्षसः । ककटं प्रति नो चक्रे मनः संग्रामलालसः ॥४०॥ एवं विनिर्गता योधाः कृच्छुतः सान्वितप्रियाः । आकुलीभूतचित्ताश्च शयनीयेषु ताः स्थिताः ॥४१॥
निकलने के लिए उद्यत हुए ।।२६।। किसीका पति हाथमें शस्त्र लेकर जब जाने लगा तब वह उसके गलेमें दोनों भुजाएँ डालकर ऐसी झूल गयो मानो किसी गजराजके गलेमें कमलिनी ही झूल रही हो ॥२७॥ किसी स्त्रीके पतिने कवच पहन रखा था इसलिए उसके शरीरका संगम न प्राप्त होनेसे वह गोदमें स्थित होनेपर भी परम पीडाको प्राप्त हो रही थी ।।२८॥ कोई एक स्त्री पतिके वक्षःस्थलपर अर्द्धबाहुलिका देख ईर्ष्यासे भर गयी तथा उसके नेत्र कुछ-कुछ संकुचित हो गये ॥२९॥ उसे अप्रसन्न जान पतिने कहा कि हे प्रिये ! यह आधा कवच मैंने पहना है। इस प्रकार पतिके कहनेसे पुनः सन्तोषको प्राप्त हो गयी ॥३०॥ किसी सुखिया स्त्रीने ताम्बूल याचनाके बहाने पतिका अधरोष्ठ पाकर उसे दन्ताघातसे विभूषित कर बड़ी कठिनाईसे छोड़ा ॥३१॥ रणके अभिलाषी किसी पुरुषने यद्यपि अपनी स्त्रीको लौटा दिया था तथापि वह कवचके कण्ठका सूत्र बाँधनेके बहाने चली जा रही थी ॥३२॥ एक ओर तो वल्लभाकी दृष्टि और दूसरी ओर तुरहीका शब्द, इस प्रकार योद्धाका मन दो कारणरूपी दोलाके ऊपर आरूढ़ हो रहा था ॥३३॥ अमांगलिक अश्रुपातको बचानेवाली स्त्रियोंके यद्यपि पतिको देखनेकी इच्छा थी तो भी वे नेत्रोंका पलक नहीं झपाती थीं ॥३४॥ जिनके मन उतावलीसे भर रहे थे ऐसे कितने ही अहंकारी योद्धा, कवच पहने बिना ही जो शस्त्र मिला उसे ही लेकर निकल पड़े ॥३५।। किसी रणवीरका शरीर रणसे उत्पन्न सन्तोषके कारण इतना पुष्ट हो गया कि उसका निजका कवच भी शरीरमें नहीं माता था ॥३६।। किसी उत्तम योद्धाका शरीर पर-चक्रको तुरहीका शब्द सुनकर इतना फूल गया कि वह चिरकालके भरे घावोंसे रक्त छोड़ने लगा ॥३७॥ किसी योद्धाने नया मजबूत कवच पहना था परन्तु हर्षित होनेके कारण उसका शरीर इतना बढ़ गया कि कवज फटकर पुराने कवचके समान जान पड़ने लगा ॥३८|| किसोका टोप ठीक नहीं बैठ रहा था सो उसे ठीक करने में तत्पर उसकी स्त्री निश्चिन्ततापूर्वक मधुर शब्द कहती हुई बार-बार टोपको चला रही थी ।।३९|| किसीकी स्त्रीने पतिके वक्षःस्थलपर सुगन्धिका लेप लगा दिया था सो उसकी रक्षा करते हुए उसने युद्धको अभिलाषा होते हुए भी कवच धारण करनेको ओर मन नहीं किया था-कवच धारण करनेका विचार नहीं किया था ।।४०।। इस प्रकार जो
१. संनहनी(टि.)। २. कृत्वा म.। ३. शीघ्रं पुराणं कंटकायितम् म. । ४. दीयमानः म. । ५. कंटकं म.,ख. ।
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