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चतुःपञ्चाशत्तमं पर्व
३४९ ततो नलेन सस्पद्धं जित्वा निहतसैनिकः । बद्धो बाहुबलाढ्येन समुद्रः खेचरः परः ॥६६॥ संपूज्य च पुनर्मुक्तः पद्मनामस्य शासने । स्थापितोऽवस्थिताश्चैते पुरे तत्र यथोचितम् ।।६७॥ सत्यश्रीः कमला चैव गुणमाला तथापराः । रत्नचूला तथा कन्या समुद्रेण प्रमोदिना ॥६॥ कल्पिताः 'पुरुशोभाढ्याः योषिद्गुणविभूषिताः । लक्ष्मीधरकुमाराय सुरस्त्रीसमविभ्रमाः ॥६९।। तत्रैका रजनी स्थित्वा सुवेलमचलं गताः । सुवेलनगरे तत्र सुवेलो नाम खेचरः ॥७॥ जित्वा तमपि संग्रामे हेलामात्रेण खेचराः । चिक्रीडुमुदितास्तत्र त्रिदशा इव नन्दने ॥७१॥ तत्राक्षयवने रम्ये 'सुखेनाक्षेपितक्षपाः । अन्येचुरुद्यता गन्तुं लङ्कां तेन सुविभ्रमाः ॥७२।। तुङ्गप्राकारयुक्तां तां हेमसद्मसमाकुलाम् । कैलासशिखराकारैः पुण्डरीकैर्विराजिताम् ॥७३॥ विचित्रः कुट्टिमतलैरालोकेनावमासतीम् । पद्मोद्यानसमायुक्तां प्रपादिकृतिभूषणाम् ॥७॥ चैत्यालयैरलंतुङ्ग नावर्णसमुज्ज्वलैः । विभूषितां पवित्रां च महेन्द्रनगरीसमाम् ॥७५।। लङ्कां दृष्ट्वा समासन्नां सर्वे खेचरपुंगवाः । हंसद्वीपकृतावासा बभवुः परमोदयाः ॥७६।। युद्धे हंसरथं तत्र विजित्य सुमहाबलम् । रम्ये हंसपुरे क्रीडां चक्रुरिच्छानुगामिनीम् ॥७७॥ मुहुः प्रेषितदूतोऽयमद्य श्वो वा विसंशयम् । भामण्डलः समायातीत्येवमाकाङ्क्षयास्थिताः ॥७॥
मन्दाक्रान्ता यं यं देशं विहितसुकृताः प्राणमाजः श्रयन्ते तस्मिस्तस्मिन् विजितरिपवो भोगसंग भजन्ते । नह्येतेषां परजनमतं किंचिदापधुतानां सर्व तेषां भवति मनसि स्थापितं हस्तसक्तम् ॥७९॥
नलका आतिथ्य किया ॥६५॥ तदनन्तर बाहुबलसे युक्त नलने स्पर्धाके साथ उसके सैनिक मार डाले और उसे बाँध लिया ॥६६॥ तदनन्तर रामका आज्ञाकारी होनेपर उसे सम्मानित कर छोड़ दिया तथा उसी नगरका राजा बना दिया। राम आदि सन्त लोग भी उसके नगरमें यथायोग्य ठहरे ॥६७॥ राजा समुद्रको सत्यश्री, कमला, गुणमाला और रत्नचूला नामकी कन्याएँ थीं जो उत्तम शोभासे युक्त थीं, स्त्रियोंके गुणोंसे विभूषित थीं तथा देवांगनाओंके समान जान पड़ती थीं। हर्षसे भरे राजा समुद्रने वे सब कन्याएँ लक्ष्मणके लिए समर्पित की ॥६८-६९॥ उस नगरमें एक रात्रि ठहरकर सब लोग सुवेलगिरिको चले गये। वहाँ सुवेल नगरमें सुवेल नामका विद्याधर राज्य करता था ।।७०॥ सो उसे भी युद्ध में अनायास जीतकर विद्याधरोंने हर्षित हो वहाँ उस प्रकार क्रीड़ा की जिस प्रकार कि देव नन्दन वनमें रहते हैं ।।७१।। वहाँ अक्षय नामक मनोहर वनमें कुशलतापूर्वक रात्रि व्यतीत कर दूसरे दिन उत्तम शोभाको धारण करनेवाले विद्याधर लंका जानेके लिए उद्यत हुए ||७२||
तदनन्तर जो ऊँचे प्राकारसे युक्त थी, सुवर्णमय भवनोंसे व्याप्त थी, कैलासके शिखरके समान सफेद कमलोंसे सुशोभित थी, नाना प्रकारके फर्शों और प्रकाशसे देदीप्यमान थी, कमल वनोंसे यक्त थी. प्याऊ आदिकी रचनाओंसे अलंकृत थी, नाना रंगोंसे उज्ज्वल ऊँचे-ऊँचे जिन-मन्दिरोंसे अलंकृत तथा पवित्र थी और महेन्द्रकी नगरीके समान जान पड़ती थी ऐसी लंकाको निकटवर्तिनी देख परम वैभवके धारक विद्याधर हंसद्वीपमें ठहर गये ॥७३-७६।। वहाँके हंसपुर नामा नगरमें महाबलवान् राजा हंसरथको जीतकर सबने इच्छानुसार क्रीड़ा की ॥७७॥ जिसके पास बार-बार दूत भेजा गया है ऐसा भामण्डल आज या कल अवश्य आ जावेगा इस प्रकार प्रतीक्षा करते हुए सब वहाँ ठहरे थे ।।७८॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि पुण्यात्मा प्राणी जिस-जिस देशमें जाते हैं उसी-उसी देशमें वे
१. पुर-म. । २. सुक्षेपाक्षेपितक्षमा: म.।
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