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पद्मपुराणे सुपीवरभुजो वीरो दुर्द्धरस्त्रिदशैरपि । भुवने कस्य न ज्ञातः कुम्मकर्णो महाबलः ॥३१॥ यस्त्रिशूलधरः संख्ये कालाग्निरिव दीप्यते । सोऽयं विजीयते केन जगदुत्कटविक्रमः ॥३२॥ यस्यातपत्रमालोक्य शरदिन्दुमिवोद्गतम् । शत्रुसैन्यतमोध्वंसमुपयाति समन्ततः ॥३३॥ उदात्ततेजसस्तस्य स्थातुं यस्याग्रतोऽपि कः । समर्थः' पुरुषो लोके निजजीवितनिस्पृहः ॥३४॥
इति बहुविधवाचा द्वेषरागाश्रितानां प्रकटितनिजचित्तप्रार्थनासंकटानाम् । द्वितयबलजन नानाक्रियाणाम् अजनि जनितशङ्को भावमार्गो विचित्रः ॥३५॥ चेरितजननकालाऽभ्यस्तरागेतराणां भवमपरमितानामप्ययं चित्तमार्गः । भवति खलु तथैव व्यक्तीतं हि लोकं स्वचरितरविरेव प्रेरयत्यात्मकार्ये ।।३६।।
इत्या रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मपुराणे उभयबलप्रमाणविधानं नाम षट्पञ्चाशत्तम पर्व ॥५६॥
भी सुननेके लिए कौन समर्थ है ? ॥३०॥ जिसकी भुजाएँ अत्यन्त स्थूल हैं एवं जो देवोंके.द्वारा भी दुर्धर है-रोका नहीं जा सकता ऐसे महाबलवान कृम्भकर्णको कौन नहीं जानता ?||३ जो त्रिशूलका धारक, युद्ध में प्रलयकालकी अग्निके समान देदीप्यमान होता है तथा जिसका पराक्रम संसार में सबसे अधिक है ऐसा यह कुम्भकणं किसके द्वारा जीता जा सकता है ? ॥३२॥ उदित हुए शरत्कालीन चन्द्रमाके समान जिसका छत्र देखकर शत्रुओंको सेनारूपी अन्धकार सब ओरसे नष्ट हो जाता है उस प्रबल पराक्रमी कुम्भकर्णके सामने संसारमें ऐसा कौन समर्थ मनुष्य है जो अपने जीवनसे निःस्पृह हो खड़ा होनेके लिए भी समर्थ हो ॥३३-३४|| इस प्रकार जो नाना भाँतिके वचन बोल रहे थे, जो राग और द्वेषके आधार थे, जिन्होंने अपने मनोगत विचारोंके संकट प्रकट किये थे, तथा जिनकी नाना प्रकारकी क्रियाएँ देखी गयी थी ऐसे उभयपक्षके लोगोंकी विचारधारा विचित्र एवं शंकाको उत्पन्न करनेवाली हुई थीं ॥३५।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य संयम उत्पत्तिके योग्य समयमें भी रागी. देषी बने रहते हैं अन्य भवमें पहुँच जानेपर भी उनका मनोमार्ग वास्तव में वैसा ही रहा आता है-राग-द्वेषका अभ्यासी बना रहता है सो उचित ही है क्योंकि मनुष्यका अपना चारित्ररूपी सूर्य ही उसे आत्म-कार्यमें प्रेरित करता रहता है ।।३६।।
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराणमें राम और रावणकी
सेनाओंके प्रयाणका कथन करनेवाला छप्पनवाँर्व समाप्त हुआ ॥५६॥
१. समर्थपुरुषः म. । २. विरतिजनन- ख.। ३. कालोऽभ्यस्त- ज.। ४. मपरिजिनानां ज. ।
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