________________
पञ्चाशत्तम पर्व
१
पश्यताम्बरयानोडुगणेशः शास्त्रधीकरः । दशास्य चन्द्रमाश्छन्नः परस्त्रीच्छाबलाहकैः ॥ १६ ॥ अष्टादश सहस्राणि पत्नीनां यस्य सुखिषाम् । सीतायाः पश्यतैकस्याः कृते तं शोकशल्यितम् ॥१७॥ रक्षसां वानराणां च कस्य नाम क्षयो भवेत् । एवं बभूव संदेहः सैन्यद्वितयवर्तिनाम् ॥ १८ ॥ बलेऽस्मिन्मारदेशीयो मारुतिर्नाम भीषणः । विस्फुरच्छौर्यं तिग्मांशुः सूर्यतुल्योऽत्र शक्रजित् ॥ १९ ॥ सागरोदारमत्युग्रं साक्षादितिबलोपमम् । साधनं रावणस्येति नराः केचिद् बभाषिरे ॥२०॥ अन्तरं विरथ शूरस्याशूरस्य च न जातुचित् । न तज्ज्ञातमतिक्रान्तं किं न वो धीरबोधनम् ||२१| यद्वृत्तं दण्डकाख्यस्य वनस्य महतोऽन्तरे । अत्यन्तदारुणं युद्धं लक्ष्मणस्य महात्मनः ॥ २२ ॥ चन्द्रोदरसुतं प्राप्य तुल्यं स्वाङ्गेन केवलम् । मृत्योराविश्यमानीतो येनासौ खरदूषणः ||२३|| अतिप्रकटवीर्यस्य लक्ष्मीनिलयवक्षसः । भवतां तस्य न ज्ञातं किं वा बलमनुत्तमम् ||२४|| एकेन वायुपुत्रेण निर्भर्यं मयसंभवाम् । रामपत्नीं समाश्वास्य परार्थासक्तवृत्तिना ॥ २५॥ रावणस्य महासैन्यं विजित्यात्यन्तदारुणम् । लङ्कापुरी परिध्वस्ता भग्नप्राकारतोरणा ||२६|| एवं विदिततत्त्वानां स्फुटं वचसि निर्गते । जगाद प्रहसन् वाक्यं सुवक्त्रो गर्वनिर्भरः ||२७|| गोष्पदप्रमितं चैतद्बलं वानरलक्ष्मणाम् । क्व चैतत्सागरोदारं सैन्यं त्रैकूटमुद्धतम् ॥२८॥ इन्द्रेण साधितो यो न पतिर्विद्याभृतामयम् । एकस्य चापिनः साध्यो रावणः किं नु जायते ॥२९॥ सर्वतेजस्विमूर्धानं विभोरस्याधितिष्ठतः । श्रोतुं नामापि कः शक्तश्चेतनश्चक्रवर्तिनः ॥३०॥
कोई कहता था कि देखो जो विद्याधररूपी नक्षत्रों के समूहका स्वामी है और जो शास्त्रज्ञानरूपी किरणोंसे सहित हैं ऐसा यह रावणरूपी चन्द्रमा परनारीको इच्छारूपी मेघोंसे आच्छादित हो रहा है ||१६|| जिसको उत्तम कान्तिको धारण करनेवाली अठारह हजार स्त्रियाँ हैं वह एक सीताके लिए देखो शोकसे शल्ययुक्त हो रहा है ||१७|| देखें राक्षसों और वानरोंमें से किसका क्षय होता है ? इस प्रकार दोनों सेनाओंके लोगोंको सन्देह हो रहा था || १८ || उधर वानरोंकी सेनामें कामदेव के समान जो हनुमान् है वह अत्यन्त भयंकर है, उसका शौर्यरूपी सूर्य अतिशय देदीप्यमान हो रहा है और इधर राक्षसोंकी सेना में इन्द्रजित् सूर्यके समान है ॥ १९ ॥ कोई कह रहे थे कि रावणकी यह सेना समुद्रके समान विशाल, अत्यन्त उग्र तथा साक्षात् दैत्योंकी सेनाके समान है ||२०|| क्या तुम कभी शूर-वीर और अशूर-वीरका अन्तर नहीं जानते ? क्या तुम्हें पिछली बात याद नहीं है ? और क्या तुम सबको धीर-वीर मनुष्य की पहचान नहीं है ? ||२१|| कोई कह रहे थे कि विशाल दण्डकवनके मध्यमें महाबलवान् लक्ष्मणका जो युद्ध हुआ था और उसमें केवल अपने शरीरके तुल्य चन्द्रोदरके पुत्र - विराधितको पाकर उसने खरदूषणको यमका अतिथि बना दिया था । इस प्रकार अत्यन्त प्रकट पराक्रमके धारक लक्ष्मणका उत्कृष्ट बल क्या आप लोगोंको विदित नहीं है ? ॥२२ - २४ ॥ कोई कह रहा था कि उस समय परहितमें लगे हुए अकेले हनुमान्ने मन्दोदरीको डांटकर तथा सीताको सान्त्वना देकर रावणकी अत्यन्त उग्र सेना जीत ली थी तथा जिसके कोट और तोरण तोड़ दिये गये थे ऐसी लंकाको क्षत-विक्षत कर दिया था ॥२५-२६॥
३५९
इस प्रकार तत्त्वज्ञ मनुष्योंके स्पष्ट वचन निकलनेपर गवसे भरा सुमुख राक्षस हँसता हुआ निम्न प्रकारके वचन बोला ||२७|| वह कहने लगा कि वानर चिह्नको धारण करनेवाले वानरवंशियोंकी यह गोखुर के समान तुच्छ सेना कहाँ ? और यह त्रिकूटवासियों की समुद्रके समान विशाल एवं उत्कट सेना कहाँ ? ||२८|| जो विद्याधरोंका अधिपति रावण इन्द्रके द्वारा भी वशमें नहीं किया जा सका वह एक धनुर्धारीके वश कैसे हो सकता है ? ||२९|| जो समस्त तेजस्वी मनुष्योंके मस्तकपर अधिष्ठित है अर्थात् समस्त प्रतापी मनुष्यों में श्रेष्ठ है ऐसे ( अर्ध ) चक्रवर्ती रावणका नाम
१. सुकान्तियुक्तानां । २. शोकसंचितम् म. । ३. साक्षादिति लोपमम् ( इति भवेत् ) । ४ युष्माकम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org