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चतुःपञ्चाशत्तमं पर्व
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किष्किन्धस्वामिनोऽन्येऽपि सामन्ताः परमौजसः । विद्यन्तेऽक्षतकर्माणो निभृत्याः शासनैषिणः ॥३०॥ ततस्तद्वचनं श्रुत्वा खेचराश्चक्षुरानतम् । लक्ष्मीधराग्रज तेन निदधुर्विनयान्वितम् ॥४०॥ अथेक्षांचक्रिरे तस्य वदनेऽव्यक्तसौम्यके । भ्रकुटीजालकं भीमं मृत्योरिव लतागृहम् ॥४॥ लङ्कायां तेन विन्यस्ता दृष्टिं शोणस्फुरत्विषम् । केतुरेखामिवोद्यातां राक्षसक्षयशंसिनीम् ॥४२॥ तामेव च पुनर्व्यस्ता चिरमध्यस्थतां गते । दृष्टस्थाम्नि निजे चापे कृतान्तभूलतोपमे ॥४३॥ कोपकम्पश्लथं चास्य केशमारं स्फुरद्युतिम् । निधानमिव कालस्य निरोद्धं तमसा जगत् ॥४४॥ तथाविधं च तद्वक्त्रं ज्योतिर्वलयमध्यगम् । जरठीभवदुत्पातप्रमामास्करसंनिमम् ॥४५॥ गृहीतगमनक्ष्वेडं रक्षसां नाशनायतम् । दृष्ट्वा ते गमने सज्जा जाता संभ्रान्तमानसाः ॥४६॥ राघवाकूतनुन्नास्ते संपूज्येन्दुश्रुतेगिराम् । चलिताः व्योमगाश्चित्रहेतयः संपदान्विताः ॥४७॥ प्रयाणतर्यसंघातं नादपूरितगह्वरम् । दापयित्वा रणौत्सुक्यो प्रस्थितौ रघुनन्दनौ ॥४८॥ बहुले मार्गशीर्षस्य पञ्चम्यामुदिते रवौ । सोत्साहैः शकुनैरेमिस्तेषां ज्ञेयं प्रयाणकम् ॥४९॥ दक्षिणावर्त्तनिधू मज्वाला रम्यस्वनः शिखी । परमालंकृता नारी सुरभिप्रेरकोऽनिलः ॥५०॥ निर्ग्रन्थसंयतश्छत्रं गम्भीरं वाजिहेषितम् । घण्टानिस्वनितं कान्तं कलशो दधिपूरितः ॥५१॥
सिवाय किष्किन्धनगरके स्वामी राजा सुग्रीवके और भी अनेक महापराक्रमी सामन्त हैं जो कार्यको प्रारम्भ कर बीचमें नहीं छोड़ते, आज्ञाकारी हैं और आदेशको प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥३५-३९||
तदनन्तर चन्द्रमरीचिके वचन सुनकर विद्याधरोंने अपने नीचे नेत्र विनयपूर्वक रामके ऊपर लगाये अर्थात् उनकी ओर देखा ।।४०।। तत्पश्चात् जिसका सौम्यभाव अव्यक्त था ऐसे रामके मुखपर उन्होंने वह भयंकर भृकुटीका जाल देखा जो कि यमराजके लतागृह-निकुंजके समान जान पड़ता था ॥४१॥ उन्होंने देखा कि श्रीराम लंकाकी ओर जो लाल-लाल दृष्टि लगाये हुए हैं, वह राक्षसोका क्षय सूचित करने के लिए उदित केतुकी रेखाके समान जान पड़ती है ॥४२॥ तदनन्तर उन्होंने देखा कि रामने वही दष्टि अपने उस सुदढ धनुष पर लगा रक्खी है जो चिरकालसे मध्यस्थताको प्राप्त हुआ है, तथा यमराजकी भृकुटीरूपी लताकी उपमा धारण करनेवाला है ॥४३॥ उनका केशोंका समूह क्रोधसे कम्पित तथा शिथिल होकर बिखर गया था और ऐसा जान पड़ता था मानो अन्धकारके द्वारा जगत्को व्याप्त करनेके लिए यमराजका खजाना ही खुल गया था ।।४४॥ तेजोमण्डलके बीच में स्थित उनका उस प्रकारका मुख ऐसा जान पड़ता था मानो प्रलय कालका देदीप्यमान तरुण सूर्य ही हो ॥४५॥ इस तरह राक्षसोंका नाश करनेके लिए जो गमन सम्बन्धी उतावली कर रहे थे ऐसे रामको देखकर उन सब विद्याधरोंके मन क्षुभित हो उठे तथा सब शीघ्र ही प्रस्थान करनेके लिए उद्यत हो गये ॥४६॥
अथानन्तर रामकी चेष्टाओंसे प्रेरित हुए समस्त विद्याधर चन्द्रमरीचिकी वाणीका सम्मान कर आकाशमार्गसे चल पड़े। उस समय वे सब विद्याधर नाना प्रकारके शस्त्र धारण किये हुए थे और उत्तमोत्तम सम्पदाओंसे सहित थे ॥४७॥ युद्धकी उत्कण्ठासे युक्त राम और लक्ष्मणने, ध्वनिके द्वारा गुफाओंको पूर्ण करनेवाले प्रयाणकालिक बाजे बजवाकर प्रस्थान किया ॥४८॥ मार्गशीर्ष वदी पंचमीके दिन सूर्योदयके समय उन सबका प्रस्थान हुआ था और प्रस्थान कालमें होनेवाले निम्नां. कित शुभ शकुनोंसे उनका उत्साह बढ़ रहा था ॥४९॥ उस समय उन्होंने देखा कि 'निर्धूम अग्निकी ज्वाला दक्षिणावर्तसे प्रज्वलित हो रही है, समीप ही मयूर मनोहर शब्द कर रहा है, उत्तमोत्तम अलंकारोंसे युक्त स्त्री सामने खड़ी है, सुगन्धिको फैलानेवाली वायु बह रही है ॥५०॥ १. कृतकर्माणो ज., क. । २. चक्षुरानलं ज.। ३. दृष्ट्वा म.। ४. जठरीभव-म. । ५. गमने ज.। ६. सोत्साहं च दापयित्वा म.।
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