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चतुःपञ्चाशत्तम पर्व पद्मस्याञ्जलियोतोऽसौ पतद्वाष्पो हतप्रभः । दृशा दृष्टो नु पीतो नु वार्ता पृष्टाने संभ्रमात् ॥१२॥ आसीनमालावेनं दौर्बल्यविरलाङ्गुलौ । गलकिरणधारौघं शुशोच धरणीपतिः ॥१३॥ पूरिताञ्जलिमंशूनामालोकेन तमानने । चक्रे सोऽपि रुदित्वैव नरेशः सलिलाञ्जलिम् ॥१४॥ प्रियायास्तदभिज्ञानं यत्राप्यने नियोजितम् । तेन तस्यापि वैदेहीपरिष्वङ्गः इवाभवत् ।।१५।। सर्वव्यापी समुद्भिन्नो रोमाञ्चः कर्कशो धनः । अङ्गेष्वसंभवस्तस्य प्रमोद इव निर्झरः ॥१६॥ अपृच्छच्च परिश्वज्य मारुति कृतसंभ्रमः । अपि सत्यं प्रिया प्राणान् धारयत्यतिकोमला ।।१७॥ जगाद प्रणतो वातिः नाथ जीवति नान्यथा । मया वार्ता समानीता सुखी भव इलापते ॥१८॥ किंतु त्वद्विरहोदारदावमध्यविवर्तिनी । गुणौधनिम्नगा बाला नेत्राम्बुकृतदुर्दिना ॥१९॥ वेणीवन्धच्युतिच्छायमूर्द्धजात्यन्तदुःखिता । मुहुनिश्वसती दीनं चिन्तासागरवर्तिनी ।।२०।। तनूदरी स्वभावेन विशेषेण वियोगतः । आराध्यमानिका स्त्रीमिः क्रुद्धामी रक्षसां विभोः ॥२१॥ सततं चिन्तयन्ती त्वां त्यक्तसवतनुस्थितिः । दुःखं जीवति ते कान्ता कुरु देव यथोचितम् ॥२२॥ सामीरणिवचः श्रुत्वा म्लानपभेक्षणश्चिरम् । चिन्तयाकुलितः पद्मो बभूवात्यन्तदुःखितः ॥२३॥ दीर्घमुष्णं च निश्वस्य त्रस्तालसशरीरभृत् । निनिन्द जीवितं स्वस्य जन्म चानेकधा भृशम् ॥२४॥
पड़ता था मानो शोकसे ही दुःखी होकर मलिन गया हो ॥११॥ वह प्रभाहीन चूडामणि रामकी अंजलिमें पहुँचकर ऐसा लगने लगा मानो अश्रु ही छोड़ रहा हो। रामने उसे बड़ी उत्सुकताके कारण नेत्रोंसे देखा था, या पिया था, या उससे कुशल समाचार पूछा था सो कहने में नहीं आता ॥१२॥ दुर्बलताके कारण जिसको अंगुलियाँ विरल हो गयी थीं ऐसी अंजलिमें विद्यमान तथा जिससे किरणरूपी धाराओंका समूह झर रहा था ऐसे उस चूड़ामणिके प्रति रामने शोक प्रकट किया ॥१३॥ तदनन्तर किरणोंके प्रकाशसे जिसने अंजलि भर दी थी ऐसे उस चूड़ामणिको रामने मस्तकपर धारण किया। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो उस चडामणिने स्वयं रोकर ही । जलकी अंजलि भर दी हो ॥१४॥ प्रियाके उस अभिज्ञानको रामने अपने जिस अंगपर धारण किया उसीने मानो सीताका आलिंगन प्राप्त कर लिया था ॥१५॥ उस समय उनके समस्त अंगोंमें जिसकी सम्भावना भी नहीं थी ऐसा सर्वव्यापी, कठोर तथा सघन रोमांच निकल आया मानो हर्षका निर्झर हो फूट पड़ा हो ॥१६।। रामने बड़े सम्भ्रमके साथ हनुमान्का आलिंगन कर उससे पूछा कि क्या सचमुच ही मेरी कोमलांगी प्रिया प्राण धारण कर रही है-जीवित है ? ॥१७॥ इसके उत्तरमें हनुमान्ने नम्रोभूत होकर कहा कि हे नाथ ! जीवित है। मैं अन्यथा समाचार नहीं लाया हूँ, हे राजन् ! सुखी होइए ||१८|| किन्तु इतना अवश्य है कि गुणोंके समूहकी नदी स्वरूप वह बाला तुम्हारे विरहरूपी दावानलके मध्यमें वर्तमान है, अश्रुओंके द्वारा दुर्दिन बना रही हैनिरन्तर वर्षा करती रहती है ।।१९|| वेणीबन्धनके छूट जानेसे उसके केश कान्तिहीन हो गये हैं, वह अत्यन्त दुःखी है, बार-बार दोनतापूर्वक साँसें भरती है और चिन्तारूपी सागरमें डूबी है॥२०॥ वह कृशोदरी तो स्वभावसे ही थी पर अब आपके वियोगसे और भी अधिक कृशोदरी जान पड़ती है। रावणको क्रोधभरी स्त्रियां उसकी निरन्तर आराधना करती रहती हैं ।।२१।। वह शरीरकी सर्व चिन्ता छोड़ निरन्तर आपकी ही चिन्ता करती रहती हैं। इस तरह हे देव ! आपकी प्रियवल्लभा दुःखमय जीवन व्यतीत कर रही है अतः यथायोग्य प्रयत्न कीजिए ॥२२॥ हनुमान्के उक्त वचन सुनकर रामके नेत्रकमल म्लान हो गये। वे बहुत देर तक चिन्तासे आकुलित हो अत्यन्त दुःखी हो उठे ।।२३।। शिथिल एवं अलसाये शरीरको धारण करनेवाले राम लम्बी तथा
१. जातोऽसौ म. । २. पृष्टानुसंम्रमात् म. । ३. रुदित्वा च. म. । ४. हे महीपते !। ५. च्युतच्छाय ख. ।
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