________________
३५०
पद्मपुराणे
तस्माद् मोगं भुवनविकटं भोक्तुकामेन कृत्यः । इलाध्यो धर्मो जिनवरमुखादुद्गतः सर्वसारः । आस्तां तावत्क्षयपरिचितो भोगसंगोऽपि मोक्षम् । धर्मादस्माद् व्रजति रवितोऽप्युज्ज्वलं भव्यलोकः॥४०॥
इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मपुराणे लङ्काप्रस्थानं नाम चतुःपञ्चाशत्तमं पर्व ।।५४।
शत्रुओंको जीतकर भोगोंका समागम प्राप्त करते हैं। उद्यमशील पुण्यात्मा जीवोंके लिए कोई भी वस्तु परके हाथमें नहीं रहती। समस्त मनचाही वस्तुएँ उनके हाथमें आ जाती हैं ॥७९।। इसलिए जो भव्य संसारमें उत्तम भोग भोगना चाहता है उसे जिनेन्द्रदेवके मुखारविन्दसे उदित सर्वश्रेष्ठ प्रशंसनीय धर्मका पालन करना चाहिए । क्योंकि भोगोंका नश्वर संगम तो दूर रहा वह इस धर्मके प्रभावसे सूर्यसे भी अधिक उज्ज्वल मोक्षको प्राप्त कर लेता है ।।८०॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराणमें लंकाके लिए प्रस्थानका
वर्णन करनेवाला चौवनवाँ पर्व समाप्त हआ ॥५४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org