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पद्मपुराणे
ततो दण्डिनमाय जगुरेवति तेन च । गत्वा निवेदिते प्राप्तो पद्म रत्नश्रवःसुतः ॥७१॥ ऊचे विभीषणो नत्वा प्रभुः स्वमिह जन्मनि । परत्र जिननाथश्च ममायं निश्चयः प्रभो ॥७२॥ समये हि कृते तेन प्रोचे रामो विसंशयम् । योजयामि स्वकं लङ्कां भव संदेहवर्जितः ॥७३।। विभीषणसमायोगे वर्त्तते यावदुत्सवः । तावसिद्धमहाविद्यः प्राप्तः पुष्पवतीसुतः ॥७॥ प्रभामण्डलमायात विजया खगाधिपम् । पद्मादयः परं दृष्ट्वा समानचेः प्रभाविणम् ।।७५|| निर्वाह्य दिवसानष्टौ नगरे हंसनामनि । सम्यग्निश्चितकर्तव्या लङ्काभिमुखमवजन् ॥७६॥ स्यन्दनैर्विविधैर्यानैः स्थूरीपृष्टैमरुज्जवैः । प्रावृषेण्यधनच्छायैरनेकपकदम्बकैः ।।७७॥ अनुरागोत्कटै त्यैः वीरैः सन्नाहभूषणैः । ययुः खेचरसामन्ताः समन्ताच्छन्न पुष्कराः ॥७॥ अग्रप्रयाणकन्यस्ताः प्रवीराः कपिकेतवः । संग्रामधरणी प्रापुस्तद्योग्यत्वमुदाहृतम् ॥७९॥ विंशतिर्योजनान्यस्या रुन्द्रतापरिकीर्तिता । आयामस्य तु नैवास्ति परिच्छेदो रणक्षितेः ॥८॥ नानायुधविचिह्नानां सहस्ररुपलक्षिता । मृत्युचक्रमणक्ष्मेव समवर्तत युद्धभूः ॥८॥ ततो नागाश्वसिंहानां दुन्दुभीनां च निःस्वनम् । श्रत्वा हर्ष दशास्योऽगाच्चिरागेतरणोत्सवः ॥८२॥ आज्ञादानेन चाशेषान् सामन्तान्समबीभवत् । नहि ते वञ्चितास्तेन युद्धानन्देन जातुचित् ॥८३॥ मास्करभाः पयोदाह्वाः काञ्चना व्योमवल्लभाः । गन्धर्वगीतनगराः कम्पनाः शिवमन्दिराः ॥८४॥
महाबुद्धिमान् विभीषणको बुलाया जाय। इसके विषयमें योनि सम्बन्धी दृष्टान्त स्पष्ट नहीं होता अर्थात् एक योनिसे उत्पन्न होनेके कारण जिस प्रकार रावण दुष्ट है उसी प्रकार विभीषणको भी दुष्ट होना चाहिए यह बात नहीं है ॥७०॥
तदनन्तर द्वारपालको बुलाकर सबने कहा कि विभीषण आवे । तत्पश्चात् द्वारपालके द्वारा जाकर खबर दी जानेपर विभीषण रामके पास आया ||७१।। उसने आते ही प्रणामकर कहा कि हे प्रभो ! मेरा यह निश्चय है कि इस जन्ममें आप मेरे स्वामी हैं और पर जन्ममें भी श्री जिनेन्द्र देव ॥७२॥ जब विभीषण निश्छलताकी शपथ कर चुका तब रामने संशय रहित होकर कहा कि तुम्हें लंकाका राजा बनाऊँगा, सन्देह रहित होओ ।।७३।। इधर विभीषणका समागम होनेसे जब तक उत्सव मनाया जा रहा था तब तक उधर अनेक महाविद्याओंको सिद्ध करनेवाला पुष्पवतीका पुत्र भामण्डल आ पहुँचा ।।७४।। विजयार्धके अधिपति, परम प्रभावशाली भामण्डल को आया देख राम आदिने उसका अत्यधिक सन्मान किया ॥७५।। तदनन्तर उस हंस नामक नगरमें आठ दिन बिताकर और अपने कर्तव्यका अच्छी तरह निश्चितकर सबने लंकाकी ओर प्रयाण किया ॥७६।।
अथानन्तर रथों, नाना प्रकारके वाहनों, वायुके समान वेगशाली घोड़ों, वर्षाकालीन मेघोंके समान कान्तिवाले हाथियोंके समूहों, अनुरागसे भरे भृत्यों और कवचरूपी आभूषणोंसे विभूषित वीर योद्धाओंके द्वारा जिन्होंने आकाशको सब ओरसे आच्छादित कर लिया था ऐसे विद्याधर राजा बडे उत्साहसे आ रहे थे ।।७७-७८|| वे सबके आगे चलनेवाले अत्यन्त वीर वानरवंशी राजा युद्धको भूमिमें सबसे पहले जा पहुँचे सो यह उनके लिए उचित ही था ॥७९॥ इस रणभूमिकी चौड़ाई बीस योजन थी और लम्बाईका कुछ परिमाण ही नहीं था ।।८०॥ नाना प्रकार शस्त्र और विविध चिह्नोंको धारण करनेवाले हजारों योद्धाओंसे सहित वह युद्धको भूमि मृत्युकी संसार भूमिके समान जान पड़ती थी ॥८१|| तदनन्तर जिसे चिरकाल बाद उत्सव प्राप्त हुआ था ऐसा रावण हाथी, घोड़े, सिंह और दुन्दुभियोंका शब्द सुन परम हर्षको प्राप्त हुआ ||८२॥ उसने आज्ञा देकर समस्त सामन्तोंका आदर किया सो ठीक ही है क्योंकि उसने उन्हें युद्धके आनन्दसे कभी वंचित नहीं किया था ।।८३।। सूर्याभपुर, मेघपुर, कांचनपुर, गगनवल्लभपुर,
१. नानायुद्ध-ज.। २. विरागतरणोत्सवः म.। ३. समवाभवन् म., समनीन यत् ज. ।
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