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पद्मपुराणे वजन्तो वाहनैश्चित्रश्छादयित्वा नमस्तलम् । परिच्छदसमायुक्ताः हंसद्वीपं समागताः ॥४२॥ द्वीपस्य तस्य पर्यन्ते सुमनोज्ञे ततस्तटे । ते सरिच्चुम्बिते तस्थुः सुरा नन्दीश्वरे यथा ॥४३॥ विमोषणागमे जाते जातो वानरिणां महान् । हिमागमे दरिद्राणामिवाकम्पः समन्ततः॥४४॥ समुद्रावर्तभृत्सूर्यहासं लक्ष्मीभृदक्षत । वज्रावतं धनुः पद्मः परामृशदुदादरः ॥४५॥ अमन्त्रयन्न सभूय मन्त्रिणः स्वैरमाकुलाः । सिंहादैभमिव त्रस्तं वृन्दबन्धमगाद् बलम् ॥४६॥ युवा विभीषणेनाथ दण्डपाणिर्विचक्षणः । प्रेषितः पद्मनाथस्य सकाशं मधुराक्षरः ॥४७॥ समायामुपविष्टोऽसौ कृतप्रणतिराहृतः । निजगादानुपूर्वण विरोधं भ्रातृसंभवम् ॥१८॥ इति चावेदयन्नाथ तव पद्म विभीषणः । पादौ विज्ञापयत्येवं धर्मकार्यसमुद्यतः ॥४९॥ भवन्तं शरणं भक्तः प्राप्तोऽहं श्रितवत्सल । आज्ञादानेन मे तस्मात्प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥५०॥ प्रदेशान्तरमेतस्मिन् प्रतीहारेण माषिते । संमन्त्रो मन्त्रिभिः सालु पद्मस्यैवमजायत ॥५५॥ मतिकान्तोऽब्रवीत्पा कदाचिच्छदमनैषकः । प्रेषितः स्याहशास्येन विचित्रं हि नृपेहितम् ॥५२॥ परस्पराभिघाताद्वा कलुषत्वमुपागतम् । प्रसादं पुनरप्येति कुलं जलमिव ध्रुवम् ॥५३॥ ततो मतिसमुद्रेण जगदे मतिशालिना । विरोधो हि तयोर्जातः श्रयते जनवक्त्रतः ॥५४॥ धर्मपक्षो महानीतिः शास्त्राम्बुक्षालिताशयः । अनुग्रहपरो नित्यं श्रयते हि विमीषणः ।।५।। सौदर्यकारणं नात्र कर्म हेतुः पृथक् पृथक् । सततं तत्प्रभावेण स्थिता जगति चित्रता ॥५६॥
सुशोभित होते हुए चल पड़े ॥४०-४१॥ नाना प्रकारके वाहनोंसे आकाशको आच्छादित कर अपने परिवारके साथ जाते हुए वे हंसद्वीपमें पहुँचे ॥४२॥ और नदियोंसे सुशोभित उस द्वीपके सुन्दर तटपर इस प्रकार ठहर गये जिस प्रकार कि देव नन्दीश्वर द्वीपमें ठहरते हैं ।।४३।। जिस प्रकार शोतकालके आनेपर दरिद्रोंके शरीरमें सब ओरसे कँपकँपी छटने लगती है उसी प्रकार विभीषणका आगमन होते ही वानरोंके शरीरमें सब ओरसे कंपकंपी छूटने लगो ॥४४॥ सागरावर्त धनुषको धारण करनेवाले लक्ष्मणने सूर्यहास खड्गकी ओर देखा तथा उत्कृष्ट आदर धारण करनेवाले रामने वज्रावतं धनुषका स्पर्श किया ॥४५॥ घबड़ाये हुए मन्त्री एकत्रित हो इच्छानुसार मन्त्रणा करने लगे तथा जिस प्रकार सिंहसे भयभीत होकर हाथियोंकी सेना झुण्डके रूपमें एकत्रित हो जाती है उसी प्रकार वानरोंको समस्त सेना भयभीत हो झुण्डके रूपमें एकत्रित होने लगी ॥४६॥
तदनन्तर विभीषणने अपना बद्धिमान एवं मधरभाषी द्वारपाल रामके पास भेजा ॥४७॥ बुलाये जानेपर वह सभामें गया और प्रणाम कर बैठ गया। तदनन्तर उसने यथाक्रमसे दोनों भाइयोंके विरोधकी बात कही ॥४८।। तत्पश्चात् यह कहा कि हे नाथ! हे पद्म ! सदा धर्म कार्यमें उद्यत रहनेवाला विभीषण आपके चरणों में इस प्रकार निवेदन करता है कि हे आश्रितवत्सल ! मैं भक्तिसे यक्त हो आपकी शरणमें आया है. सो आप आज्ञा देकर मझे कृतकृत्य कीजिए ॥४९-५०॥ इस प्रकार जब द्वारपालने कहा तब रामके निकटस्थ मन्त्रियोंके साथ इस तरह उत्तम सलाह हुई ॥५१।। मतिकान्त मन्त्रीने कहा कि कदाचित् रावणने छलसे इसे भेजा हो क्योंकि राजाओंकी चेष्टा विचित्र होती है ।॥५२॥ अथवा परस्परके विरोधसे कलुषताको प्राप्त हुआ कुल, जलकी तरह निश्चित ही फिरसे प्रसाद ( पक्षमें स्वच्छता ) को प्राप्त हो जाता है ॥५३॥ तदनन्तर बुद्धिशाली मतिसागर नामक मन्त्रीने कहा कि लोगोंके मुखसे यह तो सुना है कि इन दोनों भाइयोंमें विरोध हो गया है ॥५४॥ सुना जाता है कि विभीषण धर्मका पक्ष ग्रहण करनेवाला है, महानीतिमान् है, शास्त्ररूपी जलसे उसका अभिप्राय धुला हुआ है और निरन्तर अनुग्रह-उपकार करने में तत्पर रहता है ॥५५॥ इसमें भाईपना कारण नहीं है किन्तु अपना पृथक्-पृथक् कर्म ही कारण है । कर्मके
१. नभस्थलम् म. । २. समन्त्री ज. ख. क. ।
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