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पञ्चपश्चाशत्तम पर्व
३५३ अर्णवाह्न धनुर्यस्य यस्यादित्यमुखाः शराः । पक्षे मामण्डलो यस्य स कथं जीयते जनैः ॥२७॥ ये तस्य प्रणतास्तुङ्गाः खेचराणां महाधिपाः । महेन्द्रा मलयास्तीराः श्रीपर्वततनूरुहाः ॥२८॥ किष्किन्धात्रिपुरा रत्नद्वीपवेलन्धरालकाः । कैलीकिला खतिल का संध्याह्वाः हैहयास्तथा ॥२९॥ प्राग्भारदधिवक्त्राश्च तथान्ये सुमहाबलाः । विद्याविभवसंपन्नास्ते तु विद्याधरा न किम् ॥३०॥ एवं प्रवदमानं तं क्रोधप्रेरितमानसः । उत्खाय रावणः खड्गमुद्गगतो हन्तुमुद्यतः ॥३१॥ तेनापि कोपवश्येन दृष्टान्तेनोपदेशने । उन्मूलितः प्रचण्डेन स्तम्भो वज्रमयो महान् ।।३२॥ युद्धार्थमुद्गतावेतो भ्रातरावुग्रतेजसौ । सचिव,रितो कृच्छ्राद्गती स्वं स्वं निवेशनम् ।।३३।। कुम्भकर्णेन्द्रजिन्मुख्यैरेतैः प्रत्यायितस्ततः। जगाद रावणो बिभ्रन्मानसं पौरुषाशयम् ॥३४॥ आश्रयाश इव स्वस्य स्थानस्याहिततत्परः । दुरात्मा मत्पुरीतोऽयं परिनिःक्रामतु द्रुतम् ॥३५।। अनर्थोद्यतचित्तेन स्थितेन किमिहामुना । स्वाङ्गेनापि न मे कृत्यं प्रतिकूल प्रवृत्तिना ॥३६॥ तिष्ठन्तमिह मृत्यं चेदेतकं न नयाम्यहम् । ततो रावण एवाहं न भवामि विसंशयम् ॥३७॥ श्रीरत्नश्रवसः पुत्रः सोऽप्यहं न भवामि किम् । इत्युक्त्वा निर्ययौ मानी लङ्कातोऽथ विभीषणः ॥३८॥ साग्राभिश्चारुशस्त्राभिः त्रिंशद्भिः परिवारितः । अक्षौहिणीमिरुद्युक्तो गन्तुं पद्मस्य संश्रयम् ॥३९॥ विद्यधनेभवजेन्द्रप्रचण्डचपलाभिधाः । उद्गाताशनिसंघाताः कालाद्याश्च महाबलाः ॥४०॥ शूराः परमसामन्ता विभीषणसमाश्रयाः । सान्तःपुराः ससर्वस्वा नानाशस्त्रविराजिताः ॥४१॥
हो ।।२६।। जिसके पास सागरावर्त धनुष और आदित्यमुख बाण हैं तथा भामण्डल जिसके पक्षमें है वह तुम्हारे द्वारा कैसे जीता जा सकता है ? ॥२७|जो महेन्द्र, मलय, तीर, श्रीपर्वत, किष्किन्धा, त्रिपुर, रत्नद्वीप, वेलन्धर, अलका, केलीकिल, गगनतिलक, सन्ध्या, हैहय, प्राग्भार तथा दधिमुख
आदिके बड़े-बड़े अभिमानी राजा तथा विद्याविभवसे सम्पन्न अतिशय बलंवान् अन्य नृपति उन्हें प्रणाम कर रहे हैं-उनसे जा मिले हैं, सो क्या वे विद्याधर नहीं हैं ।।२८-३०।। इस प्रकार उच्च स्वरसे कहनेवाले विभीषणको मारने के लिए उधर क्रोधसे भरा रावण तलवार उभारकर खड़ा हो गया ॥३१।। और इधर उपदेश देनेके लिए जिसका दृष्टान्त दिया जाता था ऐसे महाबलवान् विभीषणने भी क्रोधके वशीभूत हो एक वज्रमयी बड़ा खम्भा उखाड़ लिया ॥३२।। युद्धके लिए उद्यत, उग्र तेजके धारक इन दोनों भाइयोंको मन्त्रियोंने बड़ी कठिनाईसे रोका। तदनन्तर रोके जानेपर वे अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥३३।।
तत्पश्चात् कुम्भकर्ण, इन्द्रजित् आदि मुख्य-मुख्य आप्त जनोंने जिसे विश्वास दिलाया था ऐसा रावण कठोर चित्तको धारण करता हुआ बोला कि जो अग्निके समान अपने हो आश्रयका अहित करने में तत्पर है ऐसा यह दृष्ट शीघ्र ही मेरे नगरसे निकल जावे ॥३४-३५॥ जिसका चित्त अनर्थ करनेमें उद्यत रहता है ऐसे इसके यहाँ रहनेसे क्या लाभ है ? मुझे तो विपरीत प्रवृत्ति करनेवाले अपने अंगसे भी कार्य नहीं है ॥३६।। यहाँ रहते हुए इसे यदि मैं मृत्युको प्राप्त न कराऊँ तो मैं रावण ही नहीं कहलाऊँ ।।३७||
अथानन्तर 'क्या मैं भी रत्नश्रवाका पुत्र नहीं हूँ' यह कहकर मानो विभीषण लंकासे निकल गया ॥३८॥ वह सुन्दर शस्त्रोंको धारण करनेवाली कुछ अधिक तीस अक्षौहिणी सेनाओंसे परिवृत हो रामके समीप जानेके लिए उद्यत हुआ ॥३९॥ विद्युद्घन, इभवज्र, इन्द्रप्रचण्ड, चपल, काल, महाकाल आदि जो बड़े-बड़े शरवीर सामन्त विभीषणके आश्रयमें रहनेवाले थे वे वज्रमय शस्त्र उभारकर अपने-अपने अन्तःपुर और सारभूत श्रेष्ठ धन लेकर नाना शस्त्रोंसे
१. अग्निरिव, आश्रयस्य ख..म.। २. शस्त्रीभिः ख.।
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