Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 369
________________ पञ्चपञ्चाशत्तम पर्व अथाभ्यर्णस्थितं ज्ञात्वा प्रतिसैन्यबलं पुरु । युगान्ताम्भोधिवेलेव लङ्का क्षोममुपागतम् ॥१॥ संभ्रान्तमानसः किंचिरकोपमाप दशाननः । चक्रे रणकथां लोको वृन्दबन्धव्यवस्थितः ॥२॥ महार्णवरवा भेर्यस्ताडिताः सुभयावहाः । तूर्यशङ्खस्वनस्तुङ्गो बभ्राम गगनाङ्गणे ॥३॥ रणभेरीनिनादेन परं प्रमुदिता भटाः । संनद्धा रावणं तेन प्राप्ताः स्वामिहितैषिणः ॥४॥ मारीचोऽमलचन्द्रश्च भास्करः स्यन्दनो विभुः । तथा हस्तप्रहस्ताद्याः संनद्धाः स्वामिनं श्रिताः ॥५॥ अथ लङ्केश्वरं वीरं संग्रामाय समुद्यतम् । विभीषणोऽभ्युपागम्य प्रणम्य रचिताञ्जलिः॥६॥ शास्त्रानुगतमत्युद्धं शिष्टानामतिसंमतम् । आयत्यां च तदात्वे च हितं स्वस्य जनस्य च ॥७॥ शिवं सौम्याननो वाक्यं पदवाक्यविशारदः । प्रमाणकोविदो धीरः प्रशान्तमिदमब्रवीत् ॥८॥ विस्तीर्ण प्रवरा संपन्महेन्द्रस्येव ते प्रभोः । स्थिता च रोदसी व्याप्य कीर्तिः कुन्ददलामला ।।९।। स्त्रीहेतोः क्षणमात्रेण सेयं मागात् परिक्षयम् । स्वामिन् संध्याभ्ररेखेव प्रसीद परमेश्वर ॥१०॥ क्षिप्रं समर्म्यतां सीता तव किं कार्यमेतया । दृश्यते न च दोषोऽत्र प्रस्पष्टः केवलो गुणः ॥११॥ सुखोदधौ निमग्नस्त्वं स्वस्थस्तिष्ठ विचक्षण । अनवद्यो महाभोगस्तवात्मीयं समन्ततः ॥१२॥ अथानन्तर शत्रुको बड़ी भारी सेनाको निकटमें स्थित जानकर लंका, प्रलयकालीन समुद्रकी वेलाके समान क्षोभको प्राप्त हुई ॥१।। जिसका चित्त सम्भ्रान्त हो रहा था ऐसा रावण कुछ क्रोधको प्राप्त हुआ और गोलाकार झुण्डोंके बीच बैठे हुए लोग रणकी चर्चा करने लगे ॥२।। जिनका शब्द महासागरकी गर्जनाके समान था ऐसी भय उत्पन्न करनेवाली भेरियां बजायी गयीं तथा तुरही और शंखोंका विशाल शब्द आकाशरूपी अंगणमें घूमने लगा ॥३॥ उस रणभेरीके शब्दसे परम प्रमोदको प्राप्त हुए, स्वामीके हितचिन्तक योद्धा तैयार होकर रावणके समीप आने लगे ॥४॥ मारीच, अमलचन्द्र, भास्कर, स्यन्दन, हस्त, प्रहस्त आदि अनेक योद्धा कवच धारण कर स्वामीके पास आये ॥५॥ __ अथानन्तर लंकाके अधिपति वीर रावणको युद्धके लिए उद्यत देख विभीषण उसके समीप गया और हाथ जोड़ प्रणाम कर शास्त्रानुकूल, अत्यन्त श्रेष्ठ, शिष्ट मनुष्योंके लिए अत्यन्त इष्ट, आगामी तथा वर्तमान कालमें हितकारी, आनन्दरूप एवं शान्तिपूर्ण निम्नांकित वचन कहने लगा। विभीषण, सौम्यमुखका धारी, पदवाक्यका विद्वान्, प्रमाणशास्त्रमें निपुण एवं अत्यन्त धीर था ॥६-८॥ उसने कहा कि हे प्रभो! आपकी सम्पदा इन्द्रको सम्पदाके समान अत्यन्त विस्तृत तथा उत्कृष्ट है और आपको कुन्दकलीके समान निर्मल कीर्ति आकाश एवं पृथिवीको व्याप्त कर स्थित है ॥९॥ __ हे स्वामिन् ! हे परमेश्वर ! परस्त्रीके कारण आपकी यह निर्मल कीर्ति सन्ध्याकालीन मेघकी रेखाके समान क्षणभरमें नष्ट न हो जाये अतः प्रसन्न होओ ॥१०॥ इसलिए शीघ्र ही सीता रामके लिए सौंप दी जाये । इससे आपको क्या कार्य ही है ? सौंप देने में दोष नहीं दिखाई देता है ॥११॥ हे बुद्धिमन् ! तुम तो सुखरूपी सागरमें निमग्न हो सुखसे बैठो । तुम्हारे अपने सब महाभोग सब ओरसे निर्दोष हैं ॥१२॥ १.-मत्यन्तं म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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